Wednesday 7 March 2018

"काश मैं मकड़ी होती"

मैं मकड़ी नहीं हूँ
जो सहवास के बाद
नर मकड़े को मार डालूँ!
मैं अबला नारी हूँ
जो पुरूषों के द्वारा
कभी पेड़ में टांग दी जाती
तो कभी जिंदा जला दी जाती
तो कभी गला घोंट दी जाती
तो कभी मेरे अंगो को क्षत-विक्षत
तो कभी जानवरों की भाँती
नोंचा व खरोंचा जाता
पुरूष रूप में
दानवों द्वारा!
जानवर भी एक के साथ
सहवास करते
पर कई पुरूषों द्वारा
एक अबला नारी के साथ
इन्सान क्या आज जानवरों से
भी गया गुजरा निकला है!
खुद को हम मानव धरती का
श्रेष्ठ प्राणी कहते पर
बुद्धि विवेक युत्त होकर भी
सहवास संबंधों की
पहचान नहीं कर पाते
क्या बच्ची,क्या जवान,क्या बुढ़ी
क्या अपना क्या पराया...
इनमें से जो भी शिकार बन जायें
बस अपनी शरीर की भूख
शांत होनी चाहिए
काश् मैं मकड़ी होती
अबला नारी नहीं!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
७/३/१८