Friday 20 December 2019

"ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे"

सींचेगे तुझे अपने लहू से
ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे!
खड़ा हिमालय प्रहरी है
पत्थर उसकी ढाल है
नदियाँ बनी जीवनदायनी है
झरना जिसकी झनकार है
माटी जिसकी सौंधी है खेत हरियाली
आबाद रहे ऐ भारत तू जिंदावाद रहे!
अनेक राज्य है पर देश एक
विवधता में यहाँ ऐकता है
खानपकवान,वेशभूषा है
कोश कोश पर बदलती बोली है
हिन्दी मातृभाषा न अपवाद रहे
ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे!
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
गुजरात से अरूणाचलप्रदेश
विभिन्न जाति व भिन्न धर्म
देश का एक संविधान याद रहे
ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"

Friday 13 December 2019

"तू छू ले मुझे"

तू छू ले मुझको
को मैं खुशबू बन जाऊँ!
तू महका दे मुझको
मैं फूल बन जाऊँ!
तू लिपट ले मुझसे
मैं चंदन बन जाऊँ!
तू घीस दे मुझको
मैं मेंहदी बन जाऊँ!
तू रस ले मेरा
मैं मधु बन जाऊँ!
तू पी ले मुझे
मैं मदिरा बन जाऊँ!
तू जला दे मुझे
मैं जुगनू बन जाऊँ!
तू मिटा दे मुझे मैं
पतंगा बन जाऊँ!
तू पूज ले मुझे
मैं मूरत बन जाऊँ!
कुमारी अर्चना 'बिट्टू'

"सफर मैं हूँ"

सिटी बजी सभी सवारी जैसे
रेल के डिब्बे में बैठ जाते है
आराम से तो कुछ खड़े रहते है
कुछ टिकट के साथ यात्रा करते है
तो कुछ बिन टिकट
किसी को टीटी फाइन कर देता है
कोई गाड़ी रोक कर उतर जाता
कोई दुर्धटना का शिकार हो जाता
तो कोई होशयारी दिखा
मौत को चकमा दे देता है!
जिन्दगी का सफर भी
कुछ ऐसा ही है मेरे दोस्तों
कोई पूरी जिन्दगी गुजराता
कोई बीच में गुजर जाता है
किसी के सपने पूरे होते है
कोई सपना देखता रह जाता!
मैं जिन्दगी के सफ़र में हूँ
बचपन से आती जवानी
अधेर उम्र से छाता बुढ़ापा
ये सफर सतत् चलता ही
चलता जा रहा है एक एक दिन
करके वर्षो कटते जा रहे है
हम खटते जा रहे है
धूप छाँव के सफर में
बरसात की फुहारों में
सुखे की परेशानी में
बाढ़ के गीलेपन में
ठंड की ठुठरन में
महँगाई की मार में
कभी मंदी की सरकार में
हँसी खुशी तो कभी सुख-दुख के
साये में जीवन गुजार देते है!
इस सफर पर एक दिन
पूर्णविराम पड़ जाएगा
गन्तव्यस्थान आ जाएगा
शरीर को इहलोक में छोड़
मेरा आत्मा परमात्मा में
सदा के लिए लीन हो जाएगा
कुछ भी नहीं बचेगा बस
यादे ही बचेगी अपनों के लिए
जो उनको कभी रूलाएगी
तो कभी उनको हँसाएगी!
हम सब यात्री है पृथ्वी ग्रह के
आते और जाते रहते है
कोई सदा के यहाँ नहीं रूकता
अगर लोग रूकने लगे तो रहेंगे
कहाँ ?और खाएगे क्या?
सभी संसाधन सीमित है
वैसे हमारा जीवन भी सीमित है
एक निश्चत अवधि में बंधा हुआ है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"बदल रही अपनी दुनिया को औरत"

अब शादी के बाद
हाथों में चुड़ियाँ पहन बैठी नहीं रहती
औरत मेंहदी उतरने करती नहीं इंतजार
करती रहती बिना थके काम
सोती भी तो बुनती है सपनों को
हँसती है जब खेलती बच्चों से
सोचती जब गूथंती है आटा
धोती है जब कपड़ा तो
जोड़ती है घर का हिसाब
मांजती है सुबह शाम वो बरतन
फिर भी हौंसला न हारती है
पढ़ती है अपना पाठ्यक्रम
बेटी जब जाती है प्ले स्कूल
ऑफिस से जब आता पति
चाय पिला जताती है प्यार
करती है सास ससुर की सेवा
जब आती है अपने ससुराल
मैयका को भी नहीं भूलती है
खुद ही मिलने को चली जाती है
बदल रही अपनी दुनिया को औरत!
नहीं रही वो घर की नौकरानी
पढ़ लिख कर बन रही
जिलाधिकारी और जज
डाॅक्टर और प्रोफेसर
कभी वैज्ञानिक तो इंजीनियर
अपना आसँमा बना रही औरत
पक्षियों सा उड़ान भर रही औरत!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"इस ठंड में तुम आना"

सुबह की छाँवों में
रजाई की राहों में
तुम्हारी गर्म बाँहों में
जो शुकून मिलता था
वो इस ठंड में कहाँ
मैं भी अकेली हूँ रात भी!
तन्हाई में दोनों एक दूसरे का
ग़म आँखों में बाँटते है
चादर पर लिपट जब सोती हूँ
तकिया को तुम समझ
बड़बड़ाती हुई कहती रहती हूँ
जैसे तुमसे कहा करती थी
तुम थक जाते पर मैं नहीं!
आज भी तुम्हारा इंतजार कर
थकती नहीं हूँ और तुम
मुझसे इंतजार करवा कर
और कितना इंतजार करूँ
अलाव जला कर भी
ये ठंड है कि जाती नहीं
जो तुम्हार मेरी साँसो की
गर्मी से मिलती थी जो
किसी चिलम को पीने से
भी नहीं आ सकती है!
एक बार फिर से वही
साँसों की गर्मी दो ना
मेरा सारा रक्त ठंड से
जम सा रहा है जानू
तुम आकर शरीर में
फिर से जान भर दो ना!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"तुम ही तो हो"

तुम्हारे जाने के बाद
पेड़ पौधो को जल देकर
सींचती रहती हूँ तुम्हारी
मौजूदगी सदा देती रहे
बीज से जब नये पौधे उगते है
सोचती तो तुम्हारा नया जन्म हुआ!
जब भी जिंदा रहने के लिए
मेरे फेफड़े फड़फड़ाते है
हवा में साँसे बन बहते हो
तुम जब भी फूलों को
खिलता देखती हूँ उसके
कोमलता तुम्हारा स्पर्श पाती हूँ
जब भी किसी बच्चे को देखती हूँ
उसकी मासूमियत में
नज़र तुम आते हो
कलकलाती लहरों को जब देखती हूँ
हर झौंके के लिलोरों में तुमको पाती हूँ
जब भी पत्तों में हरियाली छाती है
मुझमें नवयौवन भरते हो तुम!
आसमान से गिरती हर एक
ओस की बूँद में मैं तुमको पाती हूँ
सफेद बर्फ के हर कण कण में
ठंडी हवा की बहती शीतलता में
आसाढ़ के काले काले मेघों में
बारिश बनकर जब तुम आते हो
हर जगह तुम ही तुम छा जाते हो!
मौसम बनकर जब तुम आते हो
तुम्हारा प्रकृति रूप धर आना
यह कोई संयोग मात्र नहीं है
ऑक्सजीन तो नाममात्र का तत्व है
जीने के लिए मेरे प्रियवर
मुझमें आत्म स्फूर्ति तुम ही भरते हो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"वो जानवर ही तो है"

धारदार नाखूनों वाला
वो जानवर मांद में नहीं
घर की चार दिवारी में रहता है
बिष से भरे उसके दाँत नहीं
पर वह साँप से विषैला है
उसके पंजे शेर से नहीं
पर उसके हाथ से कोई
शिकार छूटता नहीं है
अतड़ियों तक को बाहर कर
क्षत विक्षत कर डालता है
पोस्टमार्टम लायक नहीं छोड़ता
मगरमछ जैसा जिंदा न नगल
शरीर को जिंदा जला डालता
चीता सी उसकी चाल है
वो दो टांगो वाला जीव है
हिरणी को आता देखकर
घात लगाय शियार की तरह
धर दबोच कर चबा जाता है
बेचारी जाल में फंसी चिड़ियाँ
जल बिन मछली सी होकर
तड़प तड़प कर मर जाती
जानवर अपना भेषबदल
भला आदमी बनकर घुम रहा
शर्तक रहे आपकी नन्हीं का
जाने कब शिकार कर लें!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"जब भी मिलते है"

जब जब वो मिलते है
मिटने को दिल करता है
जब भी वो याद आते है
दिल रोने को होता है!
ऐसा जाने क्यों होता है?
बार बार ही होता है
कोई जाने के बाद इतना
क्यों याद आता है?
सारी सुप्त हुई ऐद्रियों की
चेतना जागृति हो उठती है
चेतनाओं से आभास होता है
वह दूर होकर भी पास है
संवेदनाओं का ज्वार भाटा
चढ़ता उतरता ही रहता है!
मन उस मृगमरीचिका के पीछे
भागता ही रहता है
आखिर कब तक चलेगा
जवानी आखरी पड़ाव पर
फिर तो मौत आनी ही है
एक बार फिर मिलन होगा
फिर मिटने को दिल करेंगा
ये सिलसिला चलता रहेगा
सदियों तक हर युगों में
हम तुम मिल कर बिछड़ते रहेंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"एक बहेलिया"

एक बहेलिया सुदूर देश से
मेरे गाँव में आया था
चिड़िया को बहलाया
खुली आँखों से सपना दिखाया
फिर सारे पर्र कतर दिए
उसे शहर ले जाकर बेच दिया!
डाली डाली से फुदूकती हुई
चिड़िया के ओठों की जैसी
हँसी ही उड़ा कर ले गया!
नींद आँखों से जैसे चुरा गया
बीती यादें में रोता छोड़ गया
जिन्दग़ी में उसके क्या बचा!
आसूओं में डूबने के सिवा!
समुन्दर की तरह खारी
बंजर सी रेतीली बन चुकी
जिन्दग़ी को ना किस्ती का
ना साहिल का सहारा मिला!
बहेलिया ने ऐसा प्रेमजाल बुना
चुड़िया उम्र भर कैदी होकर
बंदनी ही उसकी बन गई
हाय चिड़िया का फूटा भाग्य
ना बहेलिया दुबारा मिला
ना चिड़िया का धौंसला बसा!
कुमारीअर्चना"बिट्टू"

जिन्दगी की दौर में"


आपाधापी की होड़ में
आगे बढ़ने की दौड़ में
मानवीय संवेदनाएं तो कहीं
शून्य हो चुकी इन्सान मौन हो चुका!
अपने को बुन रहा है
सुख को चुन रहा है
दु:ख को भुला रहा है
वस्तुओं की चाह में
नाम की प्रसिद्धि में
चौंधयाती रोशनियों में
कहीं गुम हो चुका है!
चाहतों के हाथों बिक चुका
अंदर ही अंदर कहीं टूट चुका
परिवारिक समस्याओं से
दोस्तों की दोस्ती से
अपनों के धोखे से
परायाओं दिल्लगी से
अब तो वो ऊब चुका!
कोई तिल तिल मर रहा
कोई दाने दाने को तरस रहा
फटेहाल जीवन बिता रहा
कोई पागल झपकी तो
कोई कंगाल बन चुका
कोई फर्क नहीं पड़ता
खुदको सबकुछ मिल रहा!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना