Tuesday 29 January 2019

"मैं हूँ बेरोजगार"

मैं बेरोजगार हूँ
घर में पढ़ा रद्दी अखबार हूँ
कोई गंभीर मुझे लेकर
तो कोई हल्के में पढ़ता
मेरे मन के चेहरे को!
कोई तरस खाता तो
कोई दुतकार देता
मेरी हालत सड़क के
मटरगस्ती करते हुए
आवाराकुत्तों जैसी है!
मैं ही वो पढ़ा लिखा
पीएचडी डिग्री लिया हुआ बेरोजगार हूँ
जो ना मजूरी कर सकता
ना ही मजदूर बन सकता है
पर मजबूर बन सकता है!
मेरा पेट मेरे अभिभावक
बचपन से जवानी तक पालते पोषते है
जैसे कोई फीता कृमी को!
मैं इस वैश्विक दुनिया जहाँ
नौकरियों की भरमार है
मैं वृत्त की तरह अंदर बाहर
गोल गोल घुमता रहता हूँ!
बेरोजगारी के चक्रव्यहू को नहीं भेद पाता हूँ
अभिमन्यु जैसा मारा जाता हूँ
कृष्ण सा बहुतों उपदेश देते है
पर कोई द्रोणाचार्य बनकर
लक्ष्य भेदना सिखाता नहीं
मैं अर्जुन जैसा समर को
विजय नहीं कर पाता हूँ!
हताश होकर हार जाता हूँ
गृहस्थी का बोझ ऊपर डाल
मुझको सुधारा जाता है तो
कभी अधेड़ उम्र तक
यूँ ही धूल फांका रहता हूँ
नौकरी के चक्कर में चप्पल जैसा
मैं घिस जाता हूँ!
शिक्षा व्यवस्था के खस्ता हाल
पर रोता बिलखता हूँ
एक प्रतिशत से भी कम हूँ
ज्यादा प्रतिशत हो जाऊँगा
तो भूखों मर जाऊँगा!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
29/1/19

गीत

बसंत ऋतु आयो रे
मन बौरायो रे!
फूल खिलखिलायो
खुशबू फैलायो
देख रंग माधुरी
भौरा ललचायो रे
बसंत ऋतु आयो रे!
तितली फुरफुराये
कोयल कुकियायो
बौराई आम मंजरी
मोर नाच दिखायो रे
बसंत ऋतु आयो रे!
पौधे लहलहायो
कोपल निकल आयो
बही हवा वसंती
रागिनी गुनगुनाय रे
वसंत ऋतु आयो रे!
सरसों सरसायो
यौवन हरसायो
बन के वसंती गोरी गीत गायो रे
वसंत ऋतु आयो रे!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
29/1/19

गीत

ये कैसा गणतंत्र है
जहाँ की भाषा और व्यवस्था
अभी तलक परितंत्र है!
चले गए अंग्रेज किंतु
अंग्रेजी का है अनुशासन
बढ़ती गई दाम है सुरसा
महँगा होता गया है राशन
फीताशाही लाल चतुर्दिक
डूबा भषट्राचार प्रशासन
अपने अपने मन के सब है
अपना अपना तंत्र है
ये कैसा गणतंत्र है!
दुःशासन बन गया शासक
चारों ओर लूटे नालायक
स्वास्थ समस्या नयी बिमारी
शिक्षा भी हो गई बेचारी
लूट रहा जो आज देश को
नौतिकता का देता मंत्र है
ये कैसा गणतंत्र है!
हिंदू,मुस्लिम और ईसाई
कहने को है भाई भाई
आपस में सब कटते मरते
जाति धर्म की नित लड़ाई
कैसे किसको निच दिखावै
नित होता षड़यंत्र है
ये कैसा गणतंत्र है!
कहते जैसे है घर की लक्ष्मी
कटती मरती होती जख्मी
होती भ्रूण हत्या है उसकी
कैसा मेरा तंत्र है
ये कैसा गणतंत्र है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
29/1/19

"ईश्वर की भक्ति क्यों"

ईश्वर की भक्ति क्यों
क्या ईश्वर ने खुद कहा
ऐ भक्तों मेरी पूजा करो नहीं तो
मैं तुम्हारा बुरा करूँगा!
भले तो तुम बुरा से बुरा कर्म करो
मुझे फल,दूध और मेवा चढ़ाओ
मैं तुम्हारा सदा कल्याण करूँगा!
मैंने आस्तिक बनके देखा और
नास्तिक होकर भी देखा
पर कोई फर्क़ ना पड़ा
मेरे वर्तमान जीवन पर
केवल मन में आशा का संचार
आने वाला भविष्य अच्छा होगा!
श्रद्धा से कोई भक्ति नहीं करता
भय और अशुभ फल की चिंता से
लोगों के एक कर्म हो जाते है
वृद्धावस्था की अवस्था में !
नवधा भक्ति के नौ रूपम श्रवण,
कीर्तन,स्मरण,पादसेवन,
अर्चन, वंदन, दास्य व संख्य,
आत्मनिवेदन सर्वश्रेष्ठ भक्ति है
पर हम कौन सी भक्ति कर रहे
और किस लिए कर रहे है
ये जानना अति आवश्यक है!
किसी भी धर्म में भक्ति का
एक ही अर्थ होता है
सर्व मानवकल्याण करना
फिर क्यों धर्म और संप्रदाय
सीमित दायरे बंध जाते
क्या धर्म का अर्थ इतना छोटा है वेद,उपनिषद,कुरान,बाइबल में
केवल धर्म विशेष पुस्तक भर है!
ईश्वर की भक्ति किसी फल की
न चाह में बल्कि ईश्वर का
"धन्यवादज्ञापन"होनी चाहिए
मनुष्य योनि में जीवन देने के लिए सुख व शांति
व सर्व मानव कल्याण होना चाहिए!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
29/1/19

Thursday 10 January 2019

"बुर्का"

हिज़ाब का रंगबिरंगा प्रकार
जैसे मेले में बिकती खुशियाँ हो!
देखने में तो हवाहवाई लगती पर
अंदर ताज़ी हवा न आने देती!
घुटती हूँ साँसों के लिए तड़पती हूँ
पानी के लिए जैसे हो कोई मछरी!
उड़ना चाहती आज़ादी के लिए
जैसे हो कोई चिडियाँ!
देह पर लगी लिबासों की पाबंदी
मन पर लगी गुलामी की जंजीरे
तोड़ूँ कैसे तो कैसे?
धर्म,संस्कार व संस्कृति सब क़ुरान की दुहाई देते
ना मानती तो मेरी रूस्वाई है!
मोहम्मद साहब ने तो हमारी अस्म़त की
हिफ़ाजत के लिए इसे पहनाई थी
पर ये मेरी गुलामी की प्रतिक बन गई!
सदियों से सदियों तक जन्नत जाकर भी
मैं मेरी देह के साथ मेरी रूह़ कैद हो गई!
कई ज़माते पढ़ने के बाद भी जाने क्यों
मेरी बुद्धि कुंद हुई अपनी आज़ादी को
खुद बंदकर चाँबी को पुरूषों को सौंप दी
जब ज़रूरत होगी तो मांग लूँगी
पर उन्हें छुपा दी या दरिया में बहा दी!
ग़र किया विरोध इसका सिर क़लम होगा
मेरा कई मुल्लाहों का लगेगा फ़तवा!
इसलिए चुप ही रूहूँगी
मैं जब तक तुम मुझे इस बुर्का से
आज़ाद नहीं कर देते जो को
एक अंधेरी दुनिया है!
अल्लाह करे वो कयाम़त दिन
ज़ल्दी आए मुझ स्त्री का वजूद
खाक़ में मिलने से पहले!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
10/1/19

"चुल्हा जब जलता है"

चूल्हा का धूँ धूँ कर जलना
पेट की आग का बुझना है!
चुल्हा अग्नी देवता है अन्न के साथ
इसमें पसीना भी पकता है !
चुल्हा उदास रहता है
मतलब भूख की हड़ताल है
दाना पानी की मँहगाई मार ने इसे बुझा दिया!
चूल्हा कभी जलता है कभी बुझा ही रहता है
देह की आग तो नैतिकता के
आवरण से ढकी रह जाती है
पर पापी पेट की आग तो
आत्मा को जलाती है!
चोरी,पाकेटमारी खूनी,बेईमान
और दलाल तक बना देती है
चूल्हा तब भी जलता है
केवल लड़की,कोयले और गैस से
नहीं जलता जलता है
इन्सान के इमान से
इन्सान के खून- पसीने से
इन्सान की कड़ी मेहनत से!
चूल्हा बूझ जाता है
घर में अन्न का दाना है
जलावन भी जलने को पर आदमी नहीं है
जो इसे जलाने में खुद जल भून जाता
जैसे भट्टी का इट्टा हो बिना तपे
मजबूत नहीं होता वैसे आदमी
बिना खट्टे आदमी नहीं कहलाता है!
आदमी होने की शर्त है काम का करते रहना
बेकार आदमी बेकार समान!
चूल्हा भी अपना रंग गिरगिट सा बदल रहा
पहले मिट्टी से बनता साँचे सा सजता था
अब स्टील,लोहा से बनता सजावट सा सजता है
ना धूँआ फेंकता है ना आँखों को कष्ट देता
ना वक्त खाना बनने में लेता
फिर बंद कमरे में पड़ा बूढ़ा बूढ़ी
दो रोटी को तरसता रहता मिलता है!
चूल्हा तू मिट्टी का बना ही अच्छा था
एक हंढी चढ़ती थी तुझपर
सबके पेट में दाना जाता था
पर सबके घर में कई हंढी चढ़ती
पर दाना कुछ पेट के अंदर जाता
कितना दाना बेकार कूड़े में
भूखा पत्तल को चाटता है
मानो भूखा कुकुर ही हो कोई फर्क नहीं,
कौन कुकुर है और कौन आदमी रहा है!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
10/1/19

"क्यों दूसरी औरत"

दूसरी औरत ताज़ी औरत
पुरानी औरत कबाड़ी का समान!
क्यों मेरे जीवित रहते कपड़े
और फर्निचरों की तरह
नयी आ जाती तुम्हारे बिस्तर में
मैं उतर जाती हूँ पुरानी चादर जैसी!
जिस धरौंदे को तिनका तिनका सा जोड़ कर
अपने अरमाँ को बिसरा कर बसाती हूँ
उसे तुम धौंसले सा तोड़ देते हो
मेरे बच्चों को बेहसहार और
मुझे बेवा कर देते हो!
सारे रंग मेरे रह जाते बस लाल रंग
किसी और की मांग में सज जाता है
मेरे लिए दिन के इंतजार के साथ
रातों का बढ़ जाता!
थक जाते हो तुम झूठ में मेरे साथ मुस्का कर
आँखे फेर लेते हो तब जब पलटकर लेट जाते
बिस्तर पर उसकी तरफ!
सिसकियाँ बंद दिवारों के कमरे में
घुट घुटकर रह जाती
जब तुम आंनद में रहते हो
दूसरे कमरे दूसरी औरत दूसरे बच्चों में
और मैं मेरे बच्चों हमारा घर
सब तुम्हारे वापसी में सुना सा रह जाता!
औरत ही औरत की दुश्मन है
जब औरतों से ज्यादा मर्द है
एक औरत अपने जैसे ही
सब कुछ पास रखने वाली
दूसरी औरत का हक़ छिन लेती
ये भी ना सोचती कोई मेरी जगह भी ले सकते है
फिर मेरे स्थिति भी पहले वाली जैसी होगी
कबाड़ी के समान सी!
क्या दौलत,शौहरत और रूतबा
इतनी बड़ी चीज़ है किसी का जमीर मर जाता
दूसरे का जमीन छिनकर!
कुमारी अर्चना
पूर्णिया,बिहार
मौलिक रचना
10/1/19