Friday 20 December 2019

"ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे"

सींचेगे तुझे अपने लहू से
ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे!
खड़ा हिमालय प्रहरी है
पत्थर उसकी ढाल है
नदियाँ बनी जीवनदायनी है
झरना जिसकी झनकार है
माटी जिसकी सौंधी है खेत हरियाली
आबाद रहे ऐ भारत तू जिंदावाद रहे!
अनेक राज्य है पर देश एक
विवधता में यहाँ ऐकता है
खानपकवान,वेशभूषा है
कोश कोश पर बदलती बोली है
हिन्दी मातृभाषा न अपवाद रहे
ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे!
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
गुजरात से अरूणाचलप्रदेश
विभिन्न जाति व भिन्न धर्म
देश का एक संविधान याद रहे
ऐ भारत तू जिंदाबाद रहे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"

Friday 13 December 2019

"तू छू ले मुझे"

तू छू ले मुझको
को मैं खुशबू बन जाऊँ!
तू महका दे मुझको
मैं फूल बन जाऊँ!
तू लिपट ले मुझसे
मैं चंदन बन जाऊँ!
तू घीस दे मुझको
मैं मेंहदी बन जाऊँ!
तू रस ले मेरा
मैं मधु बन जाऊँ!
तू पी ले मुझे
मैं मदिरा बन जाऊँ!
तू जला दे मुझे
मैं जुगनू बन जाऊँ!
तू मिटा दे मुझे मैं
पतंगा बन जाऊँ!
तू पूज ले मुझे
मैं मूरत बन जाऊँ!
कुमारी अर्चना 'बिट्टू'

"सफर मैं हूँ"

सिटी बजी सभी सवारी जैसे
रेल के डिब्बे में बैठ जाते है
आराम से तो कुछ खड़े रहते है
कुछ टिकट के साथ यात्रा करते है
तो कुछ बिन टिकट
किसी को टीटी फाइन कर देता है
कोई गाड़ी रोक कर उतर जाता
कोई दुर्धटना का शिकार हो जाता
तो कोई होशयारी दिखा
मौत को चकमा दे देता है!
जिन्दगी का सफर भी
कुछ ऐसा ही है मेरे दोस्तों
कोई पूरी जिन्दगी गुजराता
कोई बीच में गुजर जाता है
किसी के सपने पूरे होते है
कोई सपना देखता रह जाता!
मैं जिन्दगी के सफ़र में हूँ
बचपन से आती जवानी
अधेर उम्र से छाता बुढ़ापा
ये सफर सतत् चलता ही
चलता जा रहा है एक एक दिन
करके वर्षो कटते जा रहे है
हम खटते जा रहे है
धूप छाँव के सफर में
बरसात की फुहारों में
सुखे की परेशानी में
बाढ़ के गीलेपन में
ठंड की ठुठरन में
महँगाई की मार में
कभी मंदी की सरकार में
हँसी खुशी तो कभी सुख-दुख के
साये में जीवन गुजार देते है!
इस सफर पर एक दिन
पूर्णविराम पड़ जाएगा
गन्तव्यस्थान आ जाएगा
शरीर को इहलोक में छोड़
मेरा आत्मा परमात्मा में
सदा के लिए लीन हो जाएगा
कुछ भी नहीं बचेगा बस
यादे ही बचेगी अपनों के लिए
जो उनको कभी रूलाएगी
तो कभी उनको हँसाएगी!
हम सब यात्री है पृथ्वी ग्रह के
आते और जाते रहते है
कोई सदा के यहाँ नहीं रूकता
अगर लोग रूकने लगे तो रहेंगे
कहाँ ?और खाएगे क्या?
सभी संसाधन सीमित है
वैसे हमारा जीवन भी सीमित है
एक निश्चत अवधि में बंधा हुआ है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"बदल रही अपनी दुनिया को औरत"

अब शादी के बाद
हाथों में चुड़ियाँ पहन बैठी नहीं रहती
औरत मेंहदी उतरने करती नहीं इंतजार
करती रहती बिना थके काम
सोती भी तो बुनती है सपनों को
हँसती है जब खेलती बच्चों से
सोचती जब गूथंती है आटा
धोती है जब कपड़ा तो
जोड़ती है घर का हिसाब
मांजती है सुबह शाम वो बरतन
फिर भी हौंसला न हारती है
पढ़ती है अपना पाठ्यक्रम
बेटी जब जाती है प्ले स्कूल
ऑफिस से जब आता पति
चाय पिला जताती है प्यार
करती है सास ससुर की सेवा
जब आती है अपने ससुराल
मैयका को भी नहीं भूलती है
खुद ही मिलने को चली जाती है
बदल रही अपनी दुनिया को औरत!
नहीं रही वो घर की नौकरानी
पढ़ लिख कर बन रही
जिलाधिकारी और जज
डाॅक्टर और प्रोफेसर
कभी वैज्ञानिक तो इंजीनियर
अपना आसँमा बना रही औरत
पक्षियों सा उड़ान भर रही औरत!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"इस ठंड में तुम आना"

सुबह की छाँवों में
रजाई की राहों में
तुम्हारी गर्म बाँहों में
जो शुकून मिलता था
वो इस ठंड में कहाँ
मैं भी अकेली हूँ रात भी!
तन्हाई में दोनों एक दूसरे का
ग़म आँखों में बाँटते है
चादर पर लिपट जब सोती हूँ
तकिया को तुम समझ
बड़बड़ाती हुई कहती रहती हूँ
जैसे तुमसे कहा करती थी
तुम थक जाते पर मैं नहीं!
आज भी तुम्हारा इंतजार कर
थकती नहीं हूँ और तुम
मुझसे इंतजार करवा कर
और कितना इंतजार करूँ
अलाव जला कर भी
ये ठंड है कि जाती नहीं
जो तुम्हार मेरी साँसो की
गर्मी से मिलती थी जो
किसी चिलम को पीने से
भी नहीं आ सकती है!
एक बार फिर से वही
साँसों की गर्मी दो ना
मेरा सारा रक्त ठंड से
जम सा रहा है जानू
तुम आकर शरीर में
फिर से जान भर दो ना!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"तुम ही तो हो"

तुम्हारे जाने के बाद
पेड़ पौधो को जल देकर
सींचती रहती हूँ तुम्हारी
मौजूदगी सदा देती रहे
बीज से जब नये पौधे उगते है
सोचती तो तुम्हारा नया जन्म हुआ!
जब भी जिंदा रहने के लिए
मेरे फेफड़े फड़फड़ाते है
हवा में साँसे बन बहते हो
तुम जब भी फूलों को
खिलता देखती हूँ उसके
कोमलता तुम्हारा स्पर्श पाती हूँ
जब भी किसी बच्चे को देखती हूँ
उसकी मासूमियत में
नज़र तुम आते हो
कलकलाती लहरों को जब देखती हूँ
हर झौंके के लिलोरों में तुमको पाती हूँ
जब भी पत्तों में हरियाली छाती है
मुझमें नवयौवन भरते हो तुम!
आसमान से गिरती हर एक
ओस की बूँद में मैं तुमको पाती हूँ
सफेद बर्फ के हर कण कण में
ठंडी हवा की बहती शीतलता में
आसाढ़ के काले काले मेघों में
बारिश बनकर जब तुम आते हो
हर जगह तुम ही तुम छा जाते हो!
मौसम बनकर जब तुम आते हो
तुम्हारा प्रकृति रूप धर आना
यह कोई संयोग मात्र नहीं है
ऑक्सजीन तो नाममात्र का तत्व है
जीने के लिए मेरे प्रियवर
मुझमें आत्म स्फूर्ति तुम ही भरते हो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"वो जानवर ही तो है"

धारदार नाखूनों वाला
वो जानवर मांद में नहीं
घर की चार दिवारी में रहता है
बिष से भरे उसके दाँत नहीं
पर वह साँप से विषैला है
उसके पंजे शेर से नहीं
पर उसके हाथ से कोई
शिकार छूटता नहीं है
अतड़ियों तक को बाहर कर
क्षत विक्षत कर डालता है
पोस्टमार्टम लायक नहीं छोड़ता
मगरमछ जैसा जिंदा न नगल
शरीर को जिंदा जला डालता
चीता सी उसकी चाल है
वो दो टांगो वाला जीव है
हिरणी को आता देखकर
घात लगाय शियार की तरह
धर दबोच कर चबा जाता है
बेचारी जाल में फंसी चिड़ियाँ
जल बिन मछली सी होकर
तड़प तड़प कर मर जाती
जानवर अपना भेषबदल
भला आदमी बनकर घुम रहा
शर्तक रहे आपकी नन्हीं का
जाने कब शिकार कर लें!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"जब भी मिलते है"

जब जब वो मिलते है
मिटने को दिल करता है
जब भी वो याद आते है
दिल रोने को होता है!
ऐसा जाने क्यों होता है?
बार बार ही होता है
कोई जाने के बाद इतना
क्यों याद आता है?
सारी सुप्त हुई ऐद्रियों की
चेतना जागृति हो उठती है
चेतनाओं से आभास होता है
वह दूर होकर भी पास है
संवेदनाओं का ज्वार भाटा
चढ़ता उतरता ही रहता है!
मन उस मृगमरीचिका के पीछे
भागता ही रहता है
आखिर कब तक चलेगा
जवानी आखरी पड़ाव पर
फिर तो मौत आनी ही है
एक बार फिर मिलन होगा
फिर मिटने को दिल करेंगा
ये सिलसिला चलता रहेगा
सदियों तक हर युगों में
हम तुम मिल कर बिछड़ते रहेंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"एक बहेलिया"

एक बहेलिया सुदूर देश से
मेरे गाँव में आया था
चिड़िया को बहलाया
खुली आँखों से सपना दिखाया
फिर सारे पर्र कतर दिए
उसे शहर ले जाकर बेच दिया!
डाली डाली से फुदूकती हुई
चिड़िया के ओठों की जैसी
हँसी ही उड़ा कर ले गया!
नींद आँखों से जैसे चुरा गया
बीती यादें में रोता छोड़ गया
जिन्दग़ी में उसके क्या बचा!
आसूओं में डूबने के सिवा!
समुन्दर की तरह खारी
बंजर सी रेतीली बन चुकी
जिन्दग़ी को ना किस्ती का
ना साहिल का सहारा मिला!
बहेलिया ने ऐसा प्रेमजाल बुना
चुड़िया उम्र भर कैदी होकर
बंदनी ही उसकी बन गई
हाय चिड़िया का फूटा भाग्य
ना बहेलिया दुबारा मिला
ना चिड़िया का धौंसला बसा!
कुमारीअर्चना"बिट्टू"

जिन्दगी की दौर में"


आपाधापी की होड़ में
आगे बढ़ने की दौड़ में
मानवीय संवेदनाएं तो कहीं
शून्य हो चुकी इन्सान मौन हो चुका!
अपने को बुन रहा है
सुख को चुन रहा है
दु:ख को भुला रहा है
वस्तुओं की चाह में
नाम की प्रसिद्धि में
चौंधयाती रोशनियों में
कहीं गुम हो चुका है!
चाहतों के हाथों बिक चुका
अंदर ही अंदर कहीं टूट चुका
परिवारिक समस्याओं से
दोस्तों की दोस्ती से
अपनों के धोखे से
परायाओं दिल्लगी से
अब तो वो ऊब चुका!
कोई तिल तिल मर रहा
कोई दाने दाने को तरस रहा
फटेहाल जीवन बिता रहा
कोई पागल झपकी तो
कोई कंगाल बन चुका
कोई फर्क नहीं पड़ता
खुदको सबकुछ मिल रहा!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

Friday 27 September 2019

"ग़ज़ल"

भला दर बदर क्यूँ मैं भटकूं जहाँ में
तेरे दिल में रहने को जब घर मिला है!
न जाने ये कैसा मुकद्दर मिला है
है लम्बा सफ़र और शायर मिला है!
छुपाने से ग़म फ़ायदा अब नहीं
कुछ तेरी आँख में इक समन्दर मिला है!
मैं जितनी दफ़ा दिल लगाई हूँ यारो
मुहब्बत में धोखा ही अक्सर मिला है!
इकट्ठे हुए मेरे भाई ये जो
मेरी माँ के कमरे में जेबर मिला है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

Wednesday 25 September 2019

"मन की उदासी"

ये मन की उदासी है
या तेरे न होने का खाली अहसास
जो मेरे पुरे औरत होने पर भी
मुझे पुरा न बनाता है!
अंदर ही अंदर कचौटता है
अजान सा भविष्य का भय
अकेले पुरा जीवन काटना होगा
या तुम आकर पूरा करोंगे
मेरे इस मौन व्रत को तोडोंगे!
कब तक तकिया और बिस्तर से
मैं सिमट कर सोऊँगी
कब तक रूमाल से अपने
दर्द को सबसे छुपाऊँगी
कब बाहरी लोगों से दिल बहलाऊँगी
माँ तो समझती है मेरे दर्द
पर वो भी विवश है!
मैंने कसम ही ऐसी खाई है
बस तुमको पाने की और
तुम मेरे कहाँ होने वाले
और कोई दुजा अब दिल को भाता नहीं
शायद कोई तुम जैसा नहीं
जो मुझे इतना प्यार दे सके!
सच कहूँ तो मैं अब किसी को
तुम जैसा प्यार नहीं कर सकती
तुम्हार याद में पागली होती होती रह गई
कवयित्री खुद को बना डाला
अब फिर से किसी से प्यार किया तो
पागल ही हो जाऊँगी और
मुझे पागल नहीं होना है
पागलों को दुनिया भूल जाती है
मैं चाहती हूँ सब मुझे याद रखें!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

"औरत क्या है"

औरत चादर सी बिछती
तौलिया सी समटती
दिन रात की कहानी है!
झाड़ू सी बुहरती
रात मन से गंदा होती
सुबह तन से साफ होती
बरतन सी मजती
सिलबट्टे पर घिसती
रसोई में रगड़ती
रोज रोज की रवानी है!
आटे सी सनती
घुन सी पीसती
बच्चा को जनती
सबकी सेवा करती
घर की नौकरानी है!
पति की अद्धागंनी
जीवन की संगीनी
सुख दुख की साथी
कहलाती महारानी है!
कन्या देवी स्वरूपा होती
औरत अन्यपूर्णा होती
घर की लक्ष्मी होती
ममता की संसार होती
परिवार की संकटहरनी है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

"आदमी नहीं लड़का वर चाहिए"

आदमी नहीं लड़का वर चाहिए
बापू ऐसो वर ढूढ़ कर लाओ
जब सोलह की बाली उम्र थी
तो तीस पैंतीस का आदमी मिलता
तोंद कुछ बाहर निकली सी
बाल सिर से गायब से
चेहरे पर उम्र साफ झलकता
बातों से परिपक्क सा लगता!
माँ ये तो आदमी है लड़का नहीं
माँ हाथ चमका चमका कहती
मर्दो की भी कोई उम्र देखी जाती है
पिता कहते सुन्दरता से क्या लेना देना है
आदमी है कमा कर खिला ही देगा!
ना,ना मैंने तो सपनों में
राजकुमार को देखा था
जो नौजवान सा था
लंबा चौड़ा सीना
सुन्दर सजीला था
मेरी ही उम्र से मिलता जुलता था
दोस्त जैसा लगता था वो!
माँ -बापू मुझे आदमी जितने बड़े से
शादी ब्याह करके घर नहीं बसाना है
अभी मुझे आगे पढ़ना लिखना है
मैं अभी शादी नहीं करूँगी !
समय वक्त के साथ निकलता गया
मैं पैंतीस की हो आई
फिर लड़का मिलना हुआ मुश्किल हुआ
फिर से ढूढ़ने पर आदमी मिलते!
लड़के तो लड़की से बढ़े ही होगी
लड़की लड़के से चाहे जितनी छोटी
कब तक अनमेल विवाह होते रहेंगे
वो भी केवल एक तरफा ही!
लड़की लड़के से बढ़ी हुई तो
क्या शादी जल्द टूट जाएगा
बच्चे फिर पैदा न होगे संबंध बनाकर आखिर!
ऐसा क्या हो जाएगा
जो लोग पुरातन रीति रिवाज को ढ़ोते है
कानून भी बालिग लड़के के विवाह को इक्कीस
और लड़की के अठारह बना है
फिर जब संबंध बनाने की सीमा नहीं बनी
फिर विवाह में ये सीमा क्यों?
केवल लड़कियों के छोटी होने की!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

Sunday 22 September 2019

"तन की सौगंध"

तुम्हारे अन्दर से आती
भिन्नी भिन्नी सी खुशबू
कमरे में छा जाती जो
अब तक साँसों में है!
जब भी तुम आते हो
सीधे साधे से लगते हो
पर तुम्हारे तन से कभी
मिट्टी की सुगंध आती
पवित्र अगरबत्ती की
कभी शुद्धत धी की तो
कभी आरती की
मन को शीतलता और
तन को व्याकुलता देती
ये खुशबू कौन सी है!
आज तक न जान सकी
तुम दूर इतनी दूर चले गए
कभी फिर वापस न लौटने को
पर मैं उसी तन की खुशबू में
मन का चैन आज भी पाती हूँ!
कभी कभी तो लगता है
वो मेरी आत्मा में समां चुकी है
वो खुशबू नहीं मिलेगी तो
मेरी साँस रूक जाएगी
मैं भी अगरबत्ती और
फूलों की बहुत शौकीन हो गई हूँ
बदल बदल प्रयोग करती हूँ
वही खुशबू फिर से मिल जाए
और मेरे देवता के अराधना में
दर्शन पाने को व्याकुल हो जाती!
पर वो तो तुम्हारे देह की गंध थी
जिसमें आकर्षण की दिव्य शक्ति थी
क्या तुम कृष्णा थे जिसके लिए
मुझे राधा बनाकर छोड़ गए
बिन ब्याही तुम्हारी प्रेयसी
विरह की ज्वाला में तड़पने के लिए
मैं तुम्हारी उसी गंध की आगोश में
सदा के लिए सोना चाहती हूँ
आओ मुझे अपनी बाँहों में भर लो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

Saturday 14 September 2019

"वो न कभी हिम्मत हारा"

"वो न कभी हिम्मत हारा"
चलते चलते गाड़ी स्टेशन पर रूकने को हुई
वो जल्दबाज़ी में सीढ़ियों पर गिर पड़ा
अपना सुझबुद्ध खो पड़ा
कुछ देर वही पड़ा रहा
लोग का तमाशा बन गया
देख कर लोग चल जाते
पुलिस करवाई के बाद डाॅक्टर ने उसे देखा
कहा बहुत ख़ून बह चुका है
एक टांग काटनी होगी!
बैसाखी अब उसका सहारा है
कुछ समय उसके साथ काटा
पर सारा जिन्दगी के पाँव चाहिए
फिर एम.पी के चरण पकड़े
कुछ कमीशन ले देकर
नकली पाँव राजकुमार को मिले
वो सचमुच का राजकुमार बन गया!
वो नौकरी की तैयारी में छोटे गाँव से
दिल्ली महानगर आया
यूपीएससी की कीचिंग में मेहनत की
फिर प्रारंम्भिक परीक्षा पास की
कई साल पी.टी मेन्स का खेल हुआ
आर्थिक तंगी में कभी दोस्तीं से
तो कभी परिवार का सहारा मिला
कभी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया
जेआरएफ की स्काॅलरशिप से
उसने आगे की पढ़ाई पीएचडी की
फिर भी सरकारी नौकरी न पा सका
माँ बाप का श्रवण कुमार बनकर
हर वक्त सहायता को तत्पर रहता
पूरे परिवार को लेकर वो चलता है!
मुहब्बत भी की पर नौकरी न मिलने
और परिवार की मर्जी न होने से
विवाह सपना अधुरा ही रह गया
जिन्दगी के लिए एक जीवनसंगीनी
जल्द ही उससे मिले जाए और
नौकर उसका सहारा बने बैसाखी नहीं!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"सफेद लिबाज"

"सफेद लिबाज"
अब तो हरे पीले लाल नीले रंग
बदरंग से हो गए है
मुझे तो सफेद लिबाज से
तन और मन दोनों को ढकना है!
सुहाग की निशानी तो
सुहाग की चिता पर जल जाती है
पहले में भी सती हो जाती थी
अब मेरे अरमान हो जाते है!
वृन्दावन के वन में कभी राधा
और कृष्ण रासलीला रचाते थे
आज वही गलियाँ मेरे लिए विराना बनी हुई है
सोलह श्रृंगार तो दूर
प्रेम के सारे रस निरस हो गए
एक कठोरी में सुबह से
शाम जिन्दगी बीत जाती
इसका आभास जाता रहता!
वृन्दावन नाम में ही वन है
फिर भी मेरे जलाने को लकड़ियाँ कम पड़ती
सीधे नदी में मेरी लाश फेंक दी जाती
चील कौओं को खाने के लिए
अब इनकी भी संख्या कम हो रही
लाश नदी में पड़ी पड़ी सड़ती रही
नदी का पानी भी गंदा हो जाता
पर परवाह किसको है?
नदी तो गंदी करने के लिए ही होती
लाश फेंको या कचरा या फैक्टी से
निकला हुआ अवशिष्ट हो
सरकारी नदी सफाई परियोजना
करोड़ों अरबों की चलवाएगी
फिर भी नदी पीने लायक
कभी नहीं बन पाएगी!
कब तक ऐसा मेरे साथ और
नदी के साथ होता रहेगा
मैं औरत हूँ नदी भी स्त्रीलिंग है
इसलिए दोनो के साथ समान
व्यवहार किया जा रहा है
यदि दोनों पुलिंग होते तो क्या
ये व्यवहार हमारे साथ होता?
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

"मैं हिन्दी"

" मैं हिन्दी"
मैं हिन्दी एक भाषा हूँ
एक संस्कृति हूँ
एक सभ्यता हूँ एक धर्म हूँ!
मैं हिन्दी वर्षो से धूल फांकती
घर का पुराना समान हूँ
अनेकों अनेकों भाषाओं के नीचे दबी रहती हूँ
मेरे भगीनी उर्दू भी मुझे छोड़ चली है
मायका संस्कृत भी पीछे छूट चला
सखी भाषाएं से कट्टी हो चली
अँग्रेजी शौतन बनके
जब मेरे सीने पर चढ़ बैठी !
अपने ही वतन मैं रिफ्यूजी हो चली
अंग्रेज कबके मेरे वतन छोड़ चले
पर आज भी महारानी विक्टोरिया की
शान ओ शौकत चलती है
जब अँग्रेजी भाषा में
भारत की शासनसत्ता चलती है!
मेरी पड़ी धूल झाड़ कर
गंगा जल छिड़कर मुझे शुद्ध करो
वेद मंत्र को पढ़कर मेरा श्रीगणेश करो
प्रथम भाषा का दर्जा और सम्मान दो
तभी आर्यावर्त का मान बढ़ेगा
भारतीयों का शान बढ़ेगा
विश्व में भारत महान बनेगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णीयाँ,बिहार
मौलिक रचना©

Sunday 4 August 2019

"चालिस की उम्र"

चालीस की उम्र जवानी के ढ़लने की उम्र
पुरूष इस उम्र में और जवाँ होता
और औरत बुढ़ापे की दहलीज पर!
यौवन की चरम अवस्था के बाद
शरीर की माया का क्षणभंगुर हो जाना
स्त्री तो जीवित रहती है
पर पुरूष की रूचि अरूचि में बदल जाती
एक देह ही तो है जिससे वो
पुरूष से जीवन साथ चाहती है
दूसरी उसकी सेवा है जिससे वो
उसके पूरे परिवार कर पाती है
उनसे सम्मान और प्यार!
स्तनों का कसावट के जाने का संकेत
उसके रूप रंग का फिक्का पड़ना
मनोपाॅज की समय नजदीक आना
पुरूष के लिए बच्चा जनने की
मशीन का बेकार हो जाना है!
उफ् मैं अब बेकार हो गई
उस कुड़े कचरे की तरह
मौले कुचले फटे कपड़े की तरह
जिससे अब पहना न जाएगा
ना सजावट के लिए रखा जाएगा
अब घर के किसी कोने में
अपनी जिंदगी काटनी होगी
ना पति ना ही बच्चे बात सुननेंगे
नोट जो नहीं कमाती हूँ
मुझमे आकर्षण कहा से होगा
जो कमाती है वो बुढ़ापे तक
जवान रहती है पति,प्रेमी के लिए
बच्चों के लिए एटीएम बाद बन जाती
उफ् ये जवानी एक बार ही क्यों आती है
बार बार क्यों नहीं!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

"मैं वो न बन सकी"

सीता हो राम की संगिनी
वनवास में भी साथ रहे
दुःख में दुःख अहसास न दे
मैं वो सीता न बन सकी!
श्रापित होकर कई जन्मों कर सकी
न राम की भक्ति अहिल्या सी बनकर
मैंने कि न राम के चरणों की पूजा!
मैं मंदोदरी न बन सकी
जो पति के स्त्रीगामी होने पर भी
पति को ही परमेश्वर माने
मैं साधारण सी स्त्री"अर्चना"रही
जिसको कभी सौतन न भाए!
मैं उर्मिला सी सुहागन होकर भी
विधवा बनकर रह सकी
न जीवनपर्यत पति वापसी में
अश्रूओं को ही पी सकी!
द्रौपदी सी अपमानित होकर
ख़ू का का घूँट पीकर भी
सारा जीवन पंचाली बनकर
मैं कुँवारी न रह सकी!
गोपाल की राधा बनकर
बच्चपन संग न खेल सकी
प्रीत की आग में जल सकी
गोपियों सी स्वच्छंद प्रेम न कर सकी!
मीरा सी कृष्ण बाबरी होकर
बिष के प्याला को भी
मैं पीकर भी न जी सकी
मैं मीरा सी दिवानी न हो सकी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

Saturday 3 August 2019

"एक बार फिर से बरसात होने दो"

एक बार फिर बरसात होने दो
तुम्हार अहसास को पास होने दो
पास इतना न आओ दूरी मिट जाए
जरा ठहरो थोड़ी शाम होने दो!
बेकरारी तुम्हें है इतना क्यों
चुबन के बिना भी प्यार होने दो
और हमारे फासले को कम होने दो
अभी प्यार की गाड़ी चली है
इससे और जरा तेज होने दो!
जस्मो को मिलाने की जल्दी क्या है
इसे और भी कुराने पाक होने दो
मैं रूहों का मिलन चाहती हूँ
दोनों के बीच कुछ पर्दा रहने दो
अभी मिलन की रात आनी बाकी है
उस रात तक का सब्र रहने दो!
इश्क में जाति,मजहब को न लाओ
इन्सान में अभी भी इन्सान रहने दो
लहू रहता है मेरे जिस्म में और तुम्हारे भी
दिल में अभी भी कुछ जज्बात रहने दो
एक बार फिर से बरसात होने दो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

"ये कैसा रोग मुझे लगा गए"

ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
प्रेम देकर भी प्यासा छोड़ गए
ना दिन को चैन ना रात को आराम!
डाॅक्टर भी नब्ज़ पकड़कर
मर्ज की दवा नहीं लिख सकता
दुआ भी ब़ेअसर हो जाती
ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
परेशानियों का सबब़ दे गए
सुक़ून की दुनिया उजाड़ गए
आँखो से नींद ले उड़ गए
चेहरे पे उदासी दे गए ओठों की हँसी ले गए
ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
प्रेमरोग कहते है इसे खूदनसीब़ो को मिलता है
पत्थर दिल क्या जाने प्यार
किस चिड़िया का नाम है
जिसे होता है वही जानता है
ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

Friday 2 August 2019

"कब तक मेरा बलात्कार करोंगे"

कब तक मेरा बलात्कार करोंगे
जब तक थक न जाए
तुम्हारे शिशन की अंदर की भूख
मेरी योनी पर प्रहार करोंगे!
स्त्री हूँ मैं सब कुछ सहने का
असीम साहस भरा मेरे अंदर
प्रसव की कठिन पीड़ा को सहकर भी
नव जीवन में जीवन भरा मैंने!
ऐसे ही किसी स्त्री की योनी से
तुम्हारा भी कभी जन्म हुआ था
ये क्यों तुम भूल चुका है?
तेरी माँ तेरी बहन बस तेरी है
बाकियों की इज्जत करना भूल चुका है
ओ पापी तू इन्सानियत भूल चुका है
खाना भी उतना खाना चाहिए
जितनी की अंदर भूख हो
पर तू तो राक्षस बन चुका है
मर चुकी है तेरी अंत: संवेदनाएं
तेरा जीवित रहना घरती पर बोझ है
कराह रही है अब तो मेरी धरती माँ!
आखिर कबतक द्वितीय लिंग बने रहेंगे
हम बालात्कार का बदला उसकी भी
माँ बहन से क्यों न लेगा मेरा परिवार
नहीं इस बदले में दूसरी स्त्री पीड़ित होगी
ना ना समाज में ऐसा ठीक न होगा
अराजकता चारों ओर ही मचेगी!
न्यायालय ही एक ही रास्ता बचा है
वहाँ भी अब मेरा लड़ना हुआ है मुश्किल
जाऊँ तो जाऊँ मैं मदद के लिए कहाँ
पुलिस और प्रशासन बिक जाते
काली कोट पहनेवाले वाले
मेरे ही चरित्र पर दाग लगाते है
परिवार वाले समाज के डर से
घरों में मुँह छुपाकर छिप जाते है
छेड़छाड़ की बात तो मुँह में ही रह जाती है
बालात्कार होने पर नेता वोट बटोरते है
मीडिया भी बार मुझे नंगा करती है
फिर भी मैं हिम्मत ना हारूँगी!
जरूरी है अब बालिगों से बालात्कार पर
फांसी की ही एकमात्र सजा हो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

Wednesday 24 July 2019

"हम पूर्वजों का इतिहास आगे बढ़ाने आए है"

हमारे पूर्वज जो भूतपूर्व हो गए
और हम मानव वर्तमान हो गए!
कभी उनका जमाना था
आज हमारा जमाना है
शायद कल किसी और का होगा
जो हमने देखा नहीं पर समझते तो है
सदा किसी का भी जमाना नहीं रहता
एक दिन हम भी नष्ट हो जाएगें
बीते सभ्यता बीते लोगों बीती संस्कति
बीती पंरपराओं की तरह
केवल हमारे कंकालों का अवशेष बचेगें
फिर हम क्यों घमंड के मद में चूर
भूल जाते हम क्या थे
हमारे पूर्वज कौन थे
वो हमे किस उदेश्य से धरती पर लाए थे
और हम यहाँ क्या कर रहे
लक्षयवहीन दिशावहीन से
मायावी दुनिया के छलावे में भटक रहे
हम मानव भूल गए कि हम अपने पूर्वजों का
इतिहास आगे बढ़ाने आए है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना