Wednesday 29 November 2017

"आर्दश पिता"

पिता....
घर का बगीया का वो माली है
जो अपने सभी पौधों को
एक बराबर समझता है!
फूलों की तरह सहेजता व सवाँरता
अपने खूऩ पसीने की कमाई से
सींच-सींच कर बड़ा करता!
अपनी घर की प्रथम पाठशाला में
जीवन जीने का सलीका सिखलाता!
मेहनत का फल सदा मीठा होता
निराश न होना कठिन वक्त पे
सदा ही आशा की राह दिखाता!
मेरे बच्पन में पिता का साथ न मिला
माँ की संध्या में बच्पन बीता
पिता का नाम तो दाखिले पर मिला
पर हाथ पकड़कर ले जानेवाले
पिता की वो अँगुलियाँ न मिली
जूता व मौजा को पहनाने वाले
कमीज की टाई ठीक करने वाले
वो स्नेहल भरे हाथ ना मिले
सुबह शाम पढाने वाले
स्कूल की कार्यक्रम में जाने वाले
साथ लुकाछिपी खेलने वाले
वो पिता नहीं मिले जो
हम भाई बहन को चाहिए थे!
न स्कूल की वापसी पर बसता ढोती माँ!
आते जाते नन्हों की पीठ पर
भारी बसता सदा रहा
पिता सदा बाहर ही रहे
जब घर में भी रहे तो
कटे कटे से रहे
विचारों का सही न तालमेल बना
न हमारा परिवार कभी पूरा हुआ!
जिंदगी संधर्ष करने का सबक भी
नन्हें कदम की जगह
मजबूत कदमों ने ली
कॉलेज व बाद कोचिंग
कहीं भी जाने का निर्णय
हमनें खुद ही लिए!
घर के बाहर की दुनिया खुद देखी
पर कमी हमेशा से रही
उस "आर्दश पिता" की !
जो कदम कदम पर साथ दें!
भटके गर बच्चा तो
सही राह दिखाये!
समय पर बच्चों का जीवन सवार दें!
पिता का दायित्वों को पूरा कर!
केवल शिक्षा दे देना ही काफी नहीं
कौन शिक्षा दीक्षा उसे अंधेरे से
उज्जवल भविष्य की ओर ले जाएगी
ये भी परहेदार की तरह देखना काम है!
बच्चों का योग्य समय पर विवाह करना
बाद उनके संतानों के लिए भी
कुछ उत्तदायित्व वहन करें!
उनको अपने आर्थिक संसाधनों
पर निर्भर तो नहीं
आत्मनिर्भर बनाने का
हर संभव सहायता करें!
इसलिए कहा जाता है
पिता घर का पिल्लर है
जो घर को विभिन्न आपदाओं व
संकट से बचाता है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२९/११/१७

Tuesday 28 November 2017

"विवाद"

विवाद अक्सर
लड़ाई
फसाद
गुश्सा
ईष्या
द्वेष
बदला
धंमड
प्यार
शान
शौक़त
जीत के लिए आये दिन होते रहते
कभी भाईयों में
तो कभी पिता पुत्र में
दो सौतनों में
दोस्तो में
भूमि के टूकड़े
धन दौलत
कीमती वस्तुओं
और स्त्री के लिए भी!
पर ये सिक्के एक पहलू है
दूसरा पहलू ये है कि
ब्रिटिश देश छोड़ने पर
बंटवारे का बीज बो गए
फलस्वरूप भारत के दो टूकड़े हो गए
कहीं गरीबी तो नस्लवाद छोड़ गए
तो कहीं सम्प्रदायवाद छोड़ गए!
लेखक कभी खुद की
तो कभी प्रसिद्ध व्यक्तित्व की
जीवनगाथा लिख रहा
खोद रहा गड़े मर्दों को
कुरेद रहा भरे जख्म़ो को
निर्माता- निर्देशक फिल्म के दृश्यों में
बोल्ड दृश्य बना नंग्नता दिखा
तो कभी इतिहास से छेड़छाड़
तो कभी अभद्र शब्दों से
कभी नये क्रांतिक परिवर्तन करके
विवाद पर माहौल गर्म़ करते
तो कभी लेखक कहानी व
उपन्यास लिख तो
कभी कवि व कवयित्री कविता कर
विवादों को जन्म देतें!
वास्तव में विवाद होते नहीं
विवाद पैदा किए जाते है
जैसे बेटी पैदा नहीं होती
बनाई जाती है!
ज्यादा शेलिंग हो
सुपरहिट हो जाए
रातों रात प्रसिद्धी मिले
और स्टार बन जाए!
क्योंकि जो बिकता है
वही चलता है
और दुनिया चमकते सूरज को
सलाम करती ठूबते को नहीं!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२८/११/१७

Monday 27 November 2017

"प्यारी यादों का कोष"

मुझे प्यार चाहिए था
उसे दौलत
उसे खुशियाँ मिली
मुझे ग़म
उसे सब मिला
मुझे कम मिला
वो बिक गया मंडी में
मेरा मुफ्त का भी खरीदार न मिला
उसे शोहरत मिली
मुझे बदनामी के सिवा कुछ नहीं
वो डबल हो गया
मैं सिंगल रह गई
उसकी गाड़ी एक्सप्रेस हो गई
मेरी मालगाड़ी बन गई
उसके दोनों हाथों में लड्डू है
मेरी झोली खाली रह गई
वो बड़ा आदमी बन गया
मैं बेकार आदमी बन गई
वो हँस रहा मुझ पर
मैं रो रही उस पर
उसके पास सब कुछ है
फिर भी प्यार का कंगाल है
मेरे पास कुछ नहीं फिर भी
उसकी प्यारी यादों का कोष है!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
२७/११/१७

Sunday 26 November 2017

"रजोधर्मचक्र"

बालकाल की समाप्ती पर
चक्रीय रूप से चलने वाली
तीन से पाँच दिनों तक
अंडाणु बनने की प्रकिया में
डिम्ब का पुरूष शुक्राणुों से
असम्मलित होने की अवस्था में
स्त्री योनी से लगातार
रक्त स्त्राव का होना ही
रजोधर्मचक्र है
ये स्त्री होने का भी कर्म है
और उसके युवा होने सूचक भी!
रजोधर्म ना होने की स्थिति में
गर्भधारण करने में अक्षम स्त्री
जीवित मृत्यु तुल्य है!
फिर भी इस अवस्था से हर महीने
स्त्री को गुजरना ही पड़ता है अवसाद्,चिड़चिड़पान और दर्द की असहायनीय पीड़ा से सहनी होती! कपड़ा से ही काम चलना पड़ता है
पर संक्रमण का खतरा भी बना रहता
क्योंकि सरकार की ओर से
बाँटे जा रहे नैपकिन
कभी मिलते है कभी नहीं
बाहर के नैपकिन मँहगे है कि
सबके बस की बात नहीं
इसे हर महीने खरीद सके!
इस पीड़ा से मुक्ति"महापरिनिर्वीण"
व "मोक्ष" लेने से भी नहीं मिल सकती
जब तक पौढ़ताकाल खत्म होकर
वृद्धावस्था नहीं आ जाता!
रोजनावृति के बाद भी
स्त्रीयों को राहत ना मिलती
सौर्दय क्षीण होता जाता
कई बिमारियों की चपेट में
वो  असमय आ जाती!
ये स्त्री का अपवित्रता का काल है
मनु का शास्त्र क्या कहता है
चौथे दिन स्नान के बाद ही
स्त्री शुद्ध होती है
अछूत है वो किसी महामारी जैसी
उसे कोमल बिस्तर को त्यागकर
नीचे शयन करना होगा
भगवान के अराधना योग नहीं
इसलिए पूजापाठ बंद करना होगा
चुल्हा चौका में न घुसना होगा
अन्न देवता रूष्ट हो जाएगें
अलग बरतनों में खाना होगा
सारे बरतन में छूत धुस जाएगें
बड़े बुजुर्गो को स्पर्श नहीं करना होगा
पतिदेव व श्रृंगार से दूर रहना होगा
जो स्त्री रूप में अधिकार भी है
पेड़ पौधो को नहीं छूना होगा
वो हरे से पीले पड़ जाएगें
सदा खाना व अचार को
न हाथ लगाना होगा
वो खराब हो जाएगें
मुझ स्त्री की तरह!
घर के बाहर कदम न रखना होगा
बुरी नज़र व प्रभाव में आ सकती हूँ!
इस अवस्था में संबंध बनाने से
पीड़ा अंतहीन हो जाती पर
पत्नी होकर कैसे पति परमेश्वकर का
विरोध कर सकती है
मौन होकर अन्य दर्दो के समान ही
ये भी सह लेती हैं
जैसे अपमान
गाली गलौज
मारपीट
लातघूसा
तिरस्कार
धृणा
व उपेक्षाओं को..
स्त्री जो ठहरी
सब कुछ सहना ही होगा
द्वितीय लिंग है वो
प्रथम लिंग के नीचे
सदा ही रहना होगा
चाहे जितना उँचाई छू लें!
कुछ हँसते है
तो कुछ दया दिखाते
ऐसी अवस्था में जब
मेरी चाल धीमी
चेहरे का रंग उड़ जाता
बदन दर्द से कराहता
बिस्तर पर जाने को
तन और मन दोनों चाहता
पर घर और बाहर दोनों ही
जगह काम करना पड़ता है
मैं पूछना चाहती हूँ
उस पुरूष समाज से
मुझ पर दया नहीं आती तो
खुद ही ये दर्द क्यों न ले लेते
रजोधर्मचक्र का
और नौ महीने की कोख के
दायित्वभार से आज़ाद कर दो मुझे!
मुझे मातृत्वसुख व
ममतामयी नहीं बनना
ना ही महान बनना है
कुछ वर्षों के लिए ही सही
तुम मेरा कर्म करो
मैं तुम्हारा क्रिया
फिर मैं तो हूँ ही!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२६/११/१७

Friday 24 November 2017

"मैं उस पगला लड़का को ढूढ़ती हूँ"

मैं उस पगला लड़का को ढूढ़ती हूँ
जो मेरे हुस्न का दिवाना हो
रात दिन मेरा पीछे पड़ा हो
सोते जागते मेरे सपनों में खड़ा हो!
मैं उस पगला का प्यार चाहती हूँ
जिसके दिल पे सिर्फ मेरा डेरा हो
उसके धोंसले पर मेरा बसेरा हो!
मैं उस पगला लड़का का वफ़ा चाहती हूँ
जो मेरे बेवफ़ाई करने पर भी
जहान में मेरी रूसवाई न करे!
मैं उस पगला का साथ चाहती हूँ
जो मेरे मरने के बाद भी
साथ न छोड़े साया बनकर
मेरी रूह के साथ चले!
मैं उस पगला लड़का को ढूढ़ती हूँ
जिसके प्यार में मैं भी पागल हो जाऊँ
फिर हम दोनो पागल प्रेमी साथ जिये!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२५/११/१७

"हम तुम एक दुजे के बिना अधुरे है"

मेरे बिना तुम अधेरे हो
तेरे बिना मैं अधुरी हूँ
खुदा ने मुझे सुन्दर देह दी
जिससे मैं तुम्हें लुभा सकूँ
खुदा ने तुमको बहुत प्यार दिया
जिसे तुम मुझे प्यार दे सको
खुदा ने मुझे गर्भ धारण की शक्ति दी
ताकि मैं तुम्हें अपने अंदर रखूँ
पुरूष के साथ स्त्री के गुण दूँ
और तुम महापुरूष बनो
मैं तुम्हारी सहचरी!
तुमको बाहुबल की शक्ति दी
जिससे तुम आश्रय दे सकों
खुदा ने मुझे ममता दी
जिसको मैं तुम पर लुटा सकूँ
खुदा ने तुमको बड़ा दिल दिया
ताकि तुम मुझे अपने दिल में समां सको
मेरे बिना तुम अधुरे हो
तुम्हारे बिना मैं अधुरी हूँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
25/11/17

"मैं किताब सी"

किताब मेरी जैसी नहीं
पर मैं किताब सी हूँ
कई शब्दों की श्रृखंला से
कई पन्नों से मिलकर बनी
जैसे पूरा जीवन हो!

किताब पढ़ने के लिए
पाठक चाहिए
और मुझे भी
केवल ऊपर से नीचे नहीं
मन से अंर्तमन को!

ढूढ़े मुझमें ही मुझे
समझे मेरे अंतस में जाकर
कितनी गर्त में मैं हूँ
और कितनी ऊपर!

पढ़े मेरे बीती जिंदगी
की बंद किताब को
बचे उजास पन्नों पर
लिखें प्रेमकाव्य की खुली किताब
जो बन जाए एक महाकाव्य!

चाँद की चाँदनी और
ताजमहल की खुबसूरती भी
फिक्की पड़ जाए
जब उड़े भिन्नी भिन्नी खुशबू तो
गुलाब की महक कम पड़ जाए
प्रसिद्ध इतना ज्यादा हो कि
टाइम पत्रिका के कर्वर पा आ जाए!

मेरी किताब भी मुझ सी कुँवारी है
कोई ना आया पन्नें पलटने को
तुम आकर मुझे ब्याहता कर दो
भर दो प्यार व विश्वास के रंग से
मेरी जिंदगी की किताब के पन्नों को
अपनी मौजूदगी दें
भर दो मेरे सुनी मांग को
मधुकरी को मधुकर का मधुमास दो!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मैलिक रचना
२५/११/१७

"आदमी मुखौटा है"

आदमी मुखौटा है
या मुखोटे में आदमी
ये पहेली अनसूलझी है!
कौन असली होकर भी
नकली सा है
और कौन नकली होकर
असली सा है!
कलयुग में ये फेर
समझना मुश्किल है!
कौन सच्चा
कौन झूठ है
तराजू से तौलना कठिन है
क्योंकि झूठ सौ बार कहकर
सच बन जाता
सच चिल्ला चल्ला कर भी
झूठ का झूठ रह जाता !
मुखौटा एक त्योहार भी है
जहाँ बेहरूपिया बारह रूप बदलता है
जब जिसकी जरूरत
वो लगा लेता है
दूसरे को उतार देता है
वैसे ही इन्सान है
सदा एक रूप में नहीं रहता!
कभी शैतानों के भेष में छुप कर
तमाशा देख रहा होता तो
कभी सच्चा इन्सानों से
तमाशा करवा रहा होता
एक तो हम भगवान के
इशारों पर नाच रहे होते
दुजा मुखोटे के अदृश्य चेहरे के
जो ऊपर से भोला भाला सा लगता है
पर अंदर से बड़ा गंदा है
जैसे पर्यावरण में फैलता प्रदूषण हो
और समाज में छुपा शैतान
डरावानी रात सा असुरक्षित हो जाता
स्त्री का लाज
और आदमी की जान
प्रदूषण जैसी पूरे वातावरण में
ज़हर फैलाना चाहता
वैसे शैतान सबको अपने
प्रतिरूप सा बनाना चाहता!
मुखौटा तो हर कोई पहने शारफ़त के रूप दिखाता पर हर कोई शरीफ़ नहीं है!
एक मुखौटा नेता तो
दूजा अभिनेता
तीजा डॉक्टर,इजीनियर
चौथा समाजसेवी
पाँचवा साहित्यकार पहने है
छठा आधुनिक गुरू
साँतवा पुलिसवाला
आँठवा काला कोट वाला
नैवाँ प्रशासक
दसवाँ सेवक चपरासी
समाज में सारी समस्याओं के
कर्ताधर्ता बने हुए है
पर केवल दिखावटी है
कोई कागज पर करता
कोई काऩून बना
कोई योजनाओं पर
कोई प्रोजेक्ट बना करता
कोई टेंडरिंग लें
कोई दवा की पर्ची पर
कोई सरकारी फंड लेकर
फिर व्यवस्था वैसे ही वैसी रह जाती
बस मामूली बदलाव सा दिखता
क्योंकि एक मुखौटा उतारता है
दूसरा उसे फिर लगा लेता!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२४/११/१७

"परी हूँ मैं"

परी हूँ मैं
पर आसमान से उतरी नहीं
यही घरा से निकली हूँ
अंकुर के तने सी
सोने सा चमकता बदन नहीं
मिट्टी सी कच्ची बदन हूँ!
मैं मोम का मुलायम गुड़ियाँ नहीं
जो पल में पिघल जाऊँ मैं
तपती धूँप में ईट सी पकी हूँ
लोहे सी सख्त हूँ!
मैं कोई रूपवती,गुणवती,सुन्दरी नहीं
साधारण सी आम लड़की "अर्चना"हूँ!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
२४/११/१७

Wednesday 22 November 2017

"दिल चाहता है मेरा"

दिल चाहता है मेरा
मिले सुकुन के दो पल
फिर आ कर दें जाओ तुम
मुझे वो हसीन पल!
जिंदगी है दो पल की
पल पल में ये गुजर रही
सँवार दो मेरे कुछ पल
तन्हाईयों में भी
याद आ जाए वो पल!
दिल चाहता है मेरा
मिले प्यार के दो पल
कभी ना बीते वो पल
जब भी आँखें बंद करूँ
दृश्यबिंब बन पटल पे
उभर आए वो पल!
दिल चाहता है मेरा
मिले आराम के वो पल
बाँहों में भरकर रहूँ
तुम संग कुछ पल
मेरे जूल्फों से खेलों
तुम कुछ पल!
दिल चाहता है मेरा
जी भर कर फिर तुम्हें
वही प्यार करूँ जो
पहली बार देख किया था
आँखों से दिल तक
तुम्हें शीशे की तरह उतारा था
लौटकर आए वो पल!
मुठ्ठी में कसकर बंद कर लूँ
वो बेशकिमती पल
रेत बनके उड़
ना जाए वो पल!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२२/११/१७

"जब मैं फिर से माँ तुन्हारे गर्भ में आऊँ तो


माँ मैं अब ना वापस आऊँगी
ना मैं पापा तुमको सताऊँगी
घर को वापस लौटकर जब मैं
फिर से तुम्हारे गर्भ में आउँ तो
पहले से ऑक्सीजन मागँवा लेना
जाने कब मुझे जरूरत पड़ जाए!
माँ मैं अब ना वापस आऊँगी
ना मैं पापा तुमको सताऊँगा
सुबह स्कूल जाने को तैयार होने को
तुम्हारे जटपट मेरा लिए नाश्ता बनवाने को अपने कपड़े और जूतों को
साफ व इस्त्री कराने को
छूट्टियों के दिनों में घर में
हुगदंड मचाने को
बार बार ये खाऊँगी
वो खाऊँगी कहने को
स्कूलवापसी पर मेरा बसता ढोने को
रात की प्यारी लोरी गवाने को!
माँ अब ना वापस आउँगी
ना मैं पापा तुमको सताऊँगी
ये भारत देश है जहाँ आदमी को
जनसुविधाओं के अभाव में
जीना पड़ता या मरना पड़ता है
सड़ चुका है यहाँ का सरकारी तंत्र
बेबस लाचार हो चुका ये जनतंत्र
जय हो जय भारतीय गणतंत्र!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२२/११/१७

"डहेलिया"

डोल जाये मन का भँवर
जिस गोल फूल को देख
के वो डहेलिया है!
बिन खुशबू के भी
दिल लगाने को आये
वो डहेलिया है!
रंग बिरेगें रूप में
बागों की शोभा में
चार चाँद लगाए
वो डहेलिया है!
तोड़ने को जी ललचाये
फिर भी तोड़ा ना जाये
वो डहेलिया है!
ठंड में सूरज की
रोशनी में सूर्यमुखी सा
खिल खिल जाये
वो डहेलिया है!
जब भी मैं देखूँ
जिधर से देखूँ
मंद मंद मुस्काये
मेरा भी चेहरा भी
डहेलिया सा खिल जाए
वो डहेलिया है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२२/११/१७

"सृजन"

मोर हूँ मैं अपनी मोरनी को
काम कीड़ा के लिए
नृत्य कर लुभाता हूँ
कभी अपने सतरंगी पखों से
कभी अपने सुडोल बदन से
कभी जूठा प्रेम दिखाकर!
जैसे चाँद चादनी को रिझाता
अपनी रोशनी की छटा दिखाकर
पुरूष,स्त्री को आकर्षित करता
धन,दौलत व ज्ञान प्रकांड दिखाकर!
मैं भी वही करता हूँ क्योंकि
मैं मोरनी के बिना अधुरा हूँ
हम मिलकर ही तो
सृजन करेगें!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२२/११/१७

Tuesday 21 November 2017

"अस्तत्वहीन"

तुम्हारे लिए ही तो
स्वंय को अस्तित्वहीन कर
समुद्र का जिस्म़ ओढ़ लिया
तुम भी अपने पुरूषार्थ का
प्रत्याग कर नदी बन बह जाओ
आकर मुझ में सम़ा जाओ!
तुम बिन मैं अपवित्र हूँ
खारा जल हूँ
जो किसी के सुग्रह्य नहीं
तुम मुझ में संगम कर
मुझे गंगा कर दो!
मैं रोज रोज लहरों की चोट
सहकर भी जीवित हूँ
तुम आकर इन इठलाती हुई
लहरों को शांत कर दो!
आओ हम प्रेम का मंथन करें
दोनों के शेष बचे हुए
अहंम को समाप्त कर
संसार के लिए अमृतधारा
बन बह जायें!
कुमारी अर्चनी
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
22/11/17

"और कितनी सदी"

और कितनी सदी तक
और ठोता रहेगें कुप्रथाओं को
और कितना पसीना के साथ
जलता रहेगा जमीर!
और कितनी बार जिंदा होकर भी
रोज रोज मरता रहेगा
गरीब बंद करो अमानुषी प्रथा को
बंगाल में हाथों से लोगों को
रिक्सा पर खिंचने का व्यापार!
असल भारत की आजादी नहीं
ब्रिट्रिश भारत की गुलामी है
जैसे अंग्रेजी को राजकाज की
भाषा बनाना और हिंदी को
हासिये पे आज भी रखना
स्वंत्रता के असली मायने में
अजादी तभी समझी जाएगी
जब दबी कुचली जनता इससे
सदा सदा के लिए मुक्त हो जाएगी
रोटी,कपड़ा और मकान
बुनियादी सुविधा मिल पाएगी
भारत भाग्य विधाता के गीत एक साथ
देश की जानता गाएगी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२२/११ १७

"मेरा मन भी सुखा पत्ता"

पेड़ की झुकी डाली से
टूट गिरा एक पत्ता हूँ
जैसे शरीर से भिन्न एक अंग
तुम बिन दिल वहीन मैं!
जैसे पत्ता कभी हरा रहता
तो कभी सुख जाता है
कभी बसंत तो
कभी सावन
तो कभी भादो
कभी माघ मौसम की
मारो को झेलता
वैसे ही मेरा मन भी
कभी प्यार करता तो
कभी नफरत
कभी हँसता
कभी रोता
कभी सताता
तो कभी मनाता
कभी फ्रिक करता
तो कभी बेफ्रिक के भावों के
द्वंद में उलझा रहता!
दिल से प्यार
पत्ते से नमी
फूल से खुशबु
सागर से खारापन
नदी से जल
शरीर से रक्त
हवा से प्रवाह
बादल से आकाश
सूर्य से प्रकाश
चाँद से चाँदनी
रात से उजाला
जुदा नहीं हो सकते
वैसे तुम मेरी साँसो से!
वैसे क्षण तुम
जुदा हो जाओगे
मेरा मन सुखकर
पत्ता हो जाएगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
21/11/17

"जिंदगी ताश के पत्तों का ढ़ेर है"

जिंदगी ताश के पत्तों जैसी होती
जो जीत जाता है खेल में
वो बादशाह हो जाता है
जो हार जाता है खेल में
वो गुलाम बन जाता!
ये खेल जिंदगी का है
किसी का मुकदर बन जाता
किसी का डूब जाता है!
सिकन्दर तो दोनों ही है
जो हार कर भी दिल की
बाज़ी जीत जाता
जो जीत कर भी दिल की
बाज़ी हारजाता!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
21/11/17

"केवल शब्द नहीं है ये"

केवल शब्द नहीं है ये
कलम जो लिखती है
वो केवल शब्द थोड़े ही है
ये मेरे लफ्ज़ है!
जो तुम से ना कह सके
उन्हीं को पिरो देती हूँ
कागज पर अक्षर बनाकर!
जब कभी तुम पढ़ो इनको
मेरे दर्द को तुम समझो
कितने आँसू बहाये होगें
मैंने तेरे प्यार में...!
उन्हीं आँसूओ को मैंने
स्याही बना दिया
कभी ना मिटने के वाली
मोहब्ब़त की याद में!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
21/11/17

"खुली है मुठ्ठी"

खुली है मुठ्ठी
और बंद है किस्मत
पहले और बाद भी
हाथ का साथ या
जिंदगी का साथ
कौन सा दोगो मुझे?
दोनो चाहिए था
पर ना हाथ मिला
ना ही साथ बस खाली रहा
मेरी सब कुछ
खुली ही रहेगी
मुठ्ठी बेज़ान सी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
21/11/17

"मैं तस्वीर हूँ"

मैं तस्वीर हूँ
मैं नहीं बोलती
मेरी तस्वीर!
मैं नहीं हँसती
मेरा रंग!
मैं नहीं रूलाती
मुझ पर उकेरी
आरी तिरछी रेखाएं!
मैं काया नहीं
चित्रकार की माया हूँ
जो मुझमें विविध रंगों को
भरकर मेरे सफेद पन्नें को
रंगीन बना मुझे
तस्वीर में बदल देता
और मैं जीती जागती सी
तस्वीर बन जाती हूँ!
मैं तस्वीर हूँ
टंकी तो खुंटी सी
किसी किल पर
दिवारों पर
रेखों पर रहती हूँ
पर जगह लोगों के
दिल में बना लेती हूँ!
नकली होकर भी
असली बन जाती हूँ
जब लोगों के जेहन में
मेरा वजूद रह जाता
खुबसूरत यादों में
मोहब्ब़त बनकर!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
21/11/17

Monday 20 November 2017

"मेरी अहमियत"

मैं हूँ मेरे अस्तित्व में
किसी और के अस्तित्व में नहीं
यही मेरी अहमियत है!
मैं अन्य मानव,पेड़- पौधे व
जीव-जन्तुओं की भाँति
स्वंय साँसो लेता हूँ
यही मेरी अहमित है!
मैं अपने उत्तरजीविता के लिए
नित्य जीवन संधर्ष करता हूँ
यही मेरी अहमियत है!
मैं अपने कर्मों से
अपना भाग्य बदलता हूँ
और अपने किये कर्मों का
फल पाता हूँ दुसरों के कर्मों का नहीं
यही मेरी अहमियत है!
कुमारी अर्चना
पूर्णायाँ,बिहार
मौलिक रचना
20/11/17

"लौट आओ तुम"

लौट आओ तुम
मेरे प्रियवर तुम्हारे
जुदाई के वियोग में
मैं मुरझा सी गई हूँ
जैसे की पुष्ष!
मैं सुख सी गई हूँ
जैसे की लकड़ी!
मैं पाले सी हो गई हूँ
जैसे की पौधा!
मैं खखड़ी सी हो गई हूँ
जैसे की फसल!
मैं उजड़ सी गई हूँ
जैसे की गाँव!
मैं बंजर सी हो गई हूँ
जैसे की धरती!
मैं कहीं अवशेष ना हो जाऊँ
जैसे की जीवाश्म!
लौट लाओ तुम फिर से
"अर्चना" में जान बनकर!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
20/11/17

Sunday 19 November 2017

"मैं पुरूष बनना चाहती हूँ"

"पुरूष दिवस"
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मैं पुरष बनना चाहती हूँ
जो सृष्टी के सृजन के बाद
जीवों में मुख्य कर्ता बन जाता है
वो एक साथ क्रिया व कर्म
दोनों की भूमिका निभाता है
एक स्वंय को संतुष्ट
द्विजा स्त्री की तृप्ती करता!
मैं पुरूष बनना चाहती हूँ
जो इतिहास बनाता और इतिहास लिखकर भविष्यपीढ़ी को संरक्षित करता है!
प्रकृति और स्त्री दोनों उसपर आश्रित है
उसके कुशाग्र बुद्धि और बाहुबल से
इसलिए स्त्री और प्रकृति दोनों ही
सदा उसके ऋणि रहेगें!
मैं पुरूष बनना चाहती हूँ
जो घर प्रधान मुखिया बन
परिवार को संयुक्त रखता है
वो संततिकर्ता ही नहीं केवल
उसका पोषणकर्ता भी है
पीढ़ी दर पीढ़ी को पैतृक वंशावली की
परम्परा को आगे बढ़ाता!
जो नित प्रगतिशील विचारों से
समाज और देश को आगे बढ़ाता है
जो विज्ञान और प्रोधौगिकी की नयी तकनीकियों को विकसित करता है
मैं पुरूष बनना चाहती हूँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१९/११/१७

Saturday 18 November 2017

"मेरा काव्य मेरी प्रेम साधना"

"आ कुछ करे मिलने के लिए"

आ कुछ करे मिलने के लिए
चूल्हा भी धूँकर धुँकर करे
जलने के लिए!
दिल भी शुकूर शुकूर करे
धड़कने के लिए!
पक्षी भी फूर्र फूर्र करे
उड़ने के लिए!
साँसे भी हुकूर हुकूर करे
चलने के लिए!
मेरा मन भी फुसुर फुसुर करे
तुझे प्यार करने के लिए!
आ गुटर गुटर गूँ करे
दोनों मिलने के लिए!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१८/११/१७

Friday 17 November 2017

"हिसाब"

तेरे किये उन झूठे वादों को
मैं बार बार याद करती हूँ
ताकि वक्त बे वक्त तुझे भी
याद दिला सकूँ!
तेरे धोखे को मैं आज तलक ना भूली
न तुझे ही भूलने दूँगी
इसलिए तुझे भी धोखे देने के
मैं मौके तलाशती हूँ!
मेरे आँखो से बहे आश्रुओं की
हिसाब वसूली तब तक ना होगी
जब तक तेरे आँखो से भी
आश्रुओं की धारा न बहेगी!
तेरे दिये दिल के जख्म़ तब तक ना भरेगें
जब तक तेरे भी जख्म़ ना हरे हो जाएगे
मेरा दर्द से रिश्ता बन पड़ा है
अब तो तुमको दर्द में देखकर ही
ये सुकून पाएगे!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
18/11/17