Saturday 29 December 2018

"मैं हिरोइन का दिवाना"

मैं हिरोइन का दिवाना हूँ
ये नशा मधहोश कर देता है
पर मैं जिस हिरोइन का दिवाना हूँ
वो पर्दा पर अपने ऊभिनय का जलवा
दिखलाती और अपना खुबसूरत जिस्म भी!
जिसे देखने लोग थियेटरों में जाते है
अब पर्दा उठेगा नायिका कुछ तो दिखायेगी
पूरी फिल्म खत्म कुछ दिखाया ही नहीं
वो पुराने जमाने की फिल्में थी!
पर जो हम सोचते है ख्वाबों में
आज वो सब परोसती है हिरोइने!
उसके प्यार का दिवाना दर्शक
ब्लैक में मूवी की टिकट लेता है
पाॅकेट में पैसा हो ना हो उधार लेता है
बच्चे उसे देखने को चोरी तक करते है
उसके लिए मंदिर भी बनवाते है
अपनी जान भी उसके नाम कर देने से पहले
तनिक भी नहीं सोचते उसके जाने के बाद
उनके परिवार पर क्या बितेगी
अनगिनीत दर्शक जान गँवा चुके!
कहते है मैं हिरोइन का दिवाना हूँ
मेरा कोई दिवानगी होनी चाहिए!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
29/12/18

Friday 28 December 2018

"शौक"

तुझे प्यार करना
मेरा शौक नहीं जनून है...
अन्तिम साँसों की हद तक
तुम्हें रोज रोज नमाज की तरह पढ़ना
मेरा शौक नहीं,जिद्द है
तेरी इबादत के लिए
तुझे कागज पर कविता की तरह लिखना
मेरा शौक नहीं,जिन्दगी है
मेरे जिन्दा रहने के लिए!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
29/12/18

"आँसू"

आँसू आँखो से नहीं
दिल से बहे है
तुम बाहर से देख रहे
दर्द दिल में है!
आँखो में कुछ अटका नहीं
दवा आँखो को नहीं
टूटे दिल को चाहिए
मरहम वक्त नहीं इसका
प्यार जो तुम्हारा मुझे दे सकता!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
29/12/18

"कुम्हार की माटी"

कुम्हार माटी से
प्रकार प्रकार की
मूरत बनाता पर
तुमने तो इन्सान को
मूरती बना दिया!
कुम्हार साँचे में ढालकर
मनचाहा रूप देता पर
तुमने तो मुझे अपने साँचे में
ढाल दिया मेरी सुरत
संवारते संवारते अपनी
सुरत दे डाली ताकि जब भी मैं
आइना देखूँ सिर्फ तुम्हें देखूँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
29/12/18

"अपनी धड़कनो को सुनो"

अपनी धड़कनों को सुनो
जो धड़क रहा तुम्हारे सीने में
ये  मेरा  दिल  है !।
जो मैंने प्यार में तुमको दिया है
जो  मेरे  दुनिया  को अलविदा
कहने के बाद भी हरपल रहेगा तुम्हारे पास
मैं पास रहूँ  या ना रहूँ !
मेरा प्यार हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा
मेरा  दिल  बनकर तुम्हारे अंदर
मेरे एक बार फिर से जीने के लिए !
कुमारी अर्चना

"अमर प्रेम"

 समुद्र बन जाओ तुम
 मैं किनारा रेत की बहा लो मुझे !
 कोई गीत तुम गाओ 
 मैं तुम्हें गुनगुनाउँ 
 सब कुछ भूल कर
 तुम मुझमें मैं तुझमें खो जाउँ! 
 ठूब जाए इन्हीं लहरों में
 एक हो जाने के लिए 
 कई जन्मों के लिए ! 
 अमर कर दें प्रेम हमअपना
 क्या इन्सां ही अपना प्रेम
 अमर कर सकते है 
 हम पशु-पक्षी नहीं! 
 कुमारी अर्चना 
पूर्णियाँ,बिहार 
मौलिक रचना 
29/12/18

"बसंत ऋतु आयो रे"

"बसंत ऋतु आयो रे"
बसंत ऋतु आई
पूर्वया ठंढी पवन बहे
फूल खिलखिलाये
खुशबू बैलाये
भौरा ललचाये
खुशबू फैलाये
तितली फुर्फुराये
मक्खी भिनभिनाये
कोयल कूँ कियाये
मोर नाच दिखाये
कोपले निकल आये
मंजर बौराये
रागिनी गुनगुनाये
पौधे लहलाये
बच्चे खिल खिलाये
मैं बसंती बनकर
सरसों में झूम झूम
पिया मिलन के गीत गाउँ
बसंत ऋतु आयो रे
बसंत ऋतु आयो रे!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
29/12/18

Thursday 27 December 2018

"हाँ,आरक्षित हूँ मैं"

आरक्षित हूँ मैं
सुरक्षित हूँ मैं बस की
कुछ सीट पर
रेल व बैंक के काउंटरों पर
सरकारी कुछ सेवाओ में भी
महिला हूँ मैं!
आरक्षित हूँ मैं
मंडल आयोग की कृपा से
महामंडित हूँ मैं
पिछड़ा वर्ग हूँ मैं!
आरक्षित हूँ मैं
सदियों से शोषित हूँ
सबसे शासित हूँ
अनुसूचित हूँ मैं!
आरक्षित हूँ मैं
वन में वासित हूँ
असभ्य,अनपढ़ हूँ
आदिवासी हूँ मैं!
आरक्षित हूँ मैं
अल्पसंख्यक हूँ
इस्लाम कौम हूँ
जातियों में अविभाजित हूँ
मुस्लिम हूँ मैं!
आरक्षित हूँ मैं
अल्पमत में हूँ
संपन्न धन धान्य से हूँ
दक्षिण का ब्राह्मण हूँ मैं!
आरक्षित हूँ मैं
ना ही स्त्री हूँ ना ही पुरूष
जो मैं चाहूँ बने रह सकता
ओबीसी की सुविधा से लेस हूँ
किन्नर हूँ मैं!
अनारक्षित हूँ मैं
सदा ठाठ बाट में रहा
जाट हूँ मैं
ओबीसी वर्ग से हूँ
फिर भी आरक्षित की सूची में नहीं हूँ!
अनारक्षित हूँ मैं
बाहूबल में सबसे श्रेष्ठ हूँ
समाज में प्रतिष्ठित हूँ
राजपूत हूँ मैं
मूछों में ही मेरी शान है
आरक्षण से मेरा मान घटा है!
अनारक्षित हूँ मैं
चित्रगुप्त की संतान हूँ
कागज कलम मेरे हथियार है
कई भू खण्डों का स्वामी हूँ
कायस्थ हूँ मैं
आरक्षण का दुश्मन हूँ मैं!
अनारक्षित हूँ
मैं शरीर के सबसे ऊपर
समाज में ऊँचे तल पर
भगवान से थोड़ा नीचे हूँ
महाज्ञानियो में से एक हूँ
ब्राह्मण हूँ मैं
आरक्षण का विरोधी हूँ!
हमें भी आरक्षण दे दो
चाहे तो भिक्षाटन दें दो
या आरक्षण का भेदभाव मिटाओ
सत्तर साल मिल है इनको
सदी लेकर ही मानेंगे?
भले हमारे पूर्वजों ने शासित बना
इनके साथ जानवरों से भी
बत्तर सलूक किया हो
लेकिन लोकतंत्र राज्य में
सब बराबर है सभी एक
ईश्वर की संतान मानव है
आरक्षण हटाओ प्रतिस्पर्धा बढ़ाओ!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णयाँ,बिहार
27/12/18

"गाँधी आज भी जिंदा है"

तुझे क्या लगता है नाथूराम
गाँधी मर गया वो संत,महात्मा
मर गया जो अर्द्धनग्न रहता था
गोल चश्मा पहनता था
हाथ में लाठी रखता था
कमर में घड़ी लटकाता था
पाँव में खड़ाऊ पहनता था!
वो आज भी जिंदा है
भारत के हर गाँव में
लोगों के दिलों में
इतिहास के पन्नों में
कुटीर उधोगों में
चरखें की मशीनों में
खादी के वस्त्रों में!
भारत के संविधान में
नारियों के सशक्तिरण में
पिछड़ा वर्ग के उथान में
अनुसूचित के सम्मान में
अल्पसंख्यको के कल्याण में
जनजातियों के विकास में और
इनके "आरक्षण" में!
पर्यावरण की हरियाली में
स्वच्छता के वातावरण में
गौ माता के संरक्षण में
नदियों की पवित्रता में
भारत की संस्कृति में और
यहाँ की परम्परों में!
सत्य अहिंसा और न्याय में
नैतिकता व आदर्शो के सहृदयता
लोकतंत्र के विश्वास में
हिंदू मुस्लिम की एकता में
देश की एकता व अखण्डता व
समरसता में हो रहे जनआन्दोलनों में
अनुन्य व विनय के प्रयासों में
श्रम के अटूट सिद्धांत में!
हाँ ये सत्य है कि गाँधी इन्सान के रूप में
मर गया पर गाँधी का विचार नहीं!
कुमारी अर्चना
कटिहार,बिहार
मौलिक रचना
27/12/18

"समाज का मेहतर हूँ मैं"

ब्राह्मा के पादुका में
समाज के निचले स्तर पर
मेहतर कहलाता हूँ मैं
उतर वैदिक काल से
कलयुग तक का सफर
बहुत से उतार चढ़ाव आए
पर मैं एक सा रहा है!
तुम्हारे अंदर और बाहर की
गंदगी झाड़ता,फूंकता हूँ
मन को साफ नहीं कर पाता
वक्त दर वक्त परते पड़ती गई
और मैं मेहतर का मेहतर रहा!
काश् कोई मुझे भी झाड़ फूंक कर
साफ कर पाता जैसे कपड़े,बरतन और
कागज सर्फ,साबुन और वाइटनर से हो जाते
पर मैं कितना भी साबुन मलूँ
चाहे तो गंगा ही क्यों ना नहा लूँ
मेहत्तर का मेहतर रहता!
फर्क बत इतना है कि पहले
अपने ही पदचिन्हों झांडू से
मिटाता चलता था अब दूसरे के
परचिन्हों को!
अनुसूची जाति का दर्जा व
आरक्षण का लाभ पाकर भी
समाजिक स्तर पर खूदको
मैं कभी ना उठा पाया
आर्थिक स्थिति में भी
अन्य जातियों से तुलना में
पीछे का पीछे ही हूँ जैसे
पहले मेरी थी!
क्या मैं मेहतर ही रहूँगा
क्या मेरी मुक्ति संभव नहीं
जैसे बुद्घ और जैन की हुई
मेरी गंदगी के सफाई से!
ये काम तो हर इन्सान
स्वं के लिए करता है पर
समाज की गंदगी ढोना
मेरा ही कर्तव्य और कर्म
क्यों बन कर रह गया और
मेरा सम्मान भी शेष!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
27/12/18

"मेरा घर एक चिड़ियाँखाना"

कुकरू कुकरू कर जगाता मुर्गा
चूँ चूँ बड़बड़ाती तब गौरैया
पंख फैला कर नाचती तितली
गुटर गूँ,गुटर गूँ कर बोलता कबूतर
मेय मेय कर चिलाता बकरा
मिठ्ठू मिठ्ठू कर पुकारता तोतो
माँ माँ कर बुलाती गईया
जोर जोर से दम लगाती बछिया
भौ भौ कर भौकता कुत्ता
तब भाई बहन की आँख खुलती
हम सब रहते एक ही घर में मिल जुल कर
एक परिवार की तरह
इस चिड़ियाखाना में रहते!
भाई बहन के द्वंद में मुर्गे का
काम तमाम हुआ
माँ की मन्नत में बकरा(खस्सी)
देवी को बलि चढ़ी मिठ्ठू बारिश के पानी में
नहाते नहाते ठंड से मरा
फूल सारे खत्म हूए तितली परदेश चली गई
गईया के साथ बछिया
बधिया(कसाई )के हाथों बिक गई
पेड़ पौधे भी कटने से गौरया रानी रूठ
किसी ओर के घर चली गई
खोप खुले रहने से कबूतरों बाहर
दाना चुनने फुर्र हो गए
भौ भौ करता जाॅनी को
जहर देने से मौत हो गई
घर के सारे बासिंदे बिछड़ गए
हमारा कुनबा टूट कर बिखर गया!
ऊँची ऊँजी जेल जैसी दिवारे थी
खिड़की थी पर खुलती ना थी
बाहर सड़क थी अंदर
घर सुरक्षा कारणों से
स्कूल भी नहीं जाते थे
पिता पुलिस में थे थानेदार थे
आए दिन चौर और बदमाशों के
धमकियों भरे खत आते थे
गब्बर आएगा सबको मार देगा
भय के साये में बच्पन बीता
घर पर ही दोनों टाइम ट्यूशन चलता
धीरे धीरे हम सब चिड़ियाखाना के कैद के
बंदी बनकर रह गए जो
दो टांगे रहकर भी भाग नहीं सकते!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
27/12/18

"गुलदाउदी"

वैसे तो बारमासी
सजावटी फूल है
शरद ऋतु में अपनी
मोहकता दिखाता
गुलदाउदी का जब पौधा खिलता
पुष्पों में स्वर्णपुष्प कहलाता है!
शाक की श्रेणी में भी ये आता है
विभिन्न देशों के उपवनो में रहता
रंग बिरंगें रंग लिए सफेद,पीला,
नीला और गुलाबी की आभा लाता
सुन्दरता से सबका मनमोह लेता!
इसके फूलों का प्रयोग अर्क रूप में
खटमल,मच्छर को मारने के लिए
और पशुओं को मक्खियों से रक्षा
प्राईथोम के कीटनाशक गुण से
अन्य फूलों से भिन्न हो जाता है!
मेरे बाग में भी गुलदाउदी एक पौधा
आप भी अपने घर आँगन लगाओ
यह पर्यावरणनुकूल फूल का पौधा
स्वास्थ की हर पल रहता है प्रहरी!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
27/12/18

"ये है बनारसी साड़ी"

बनारस में बुनती
देश विदेशों तक बिकती
जिसको पहना चाहती
भारत की हर नारी
वो है बनारसी साड़ी!
इसके आगे फिकी
सारी की सारी साड़ी
चमकीली नीली- पीली,हरि,
गुलाबी -लाल, जामुनी- आसमानी,
केसरिया- कथ्थई, इंद्रधनुष के रंगो सी!
दुल्हन जैसे नथ को बार बार है देखती
वैसे बनारसी साड़ी को
पहनकर बहुत जँचती
सुन्दर रेशमी  सोने की ज़री की है
कारीगिरी परम्मरागत मोटिफ बूटी,
बुटा,कोनिया,बेल,
जाल और जंगला झालर के क्या कहने!
मुगलों की है देन पटका,शेरवानी,
साफा,पगड़ी,दुपट्टे, बेड -शीट,
मसन्द में भी ये है निखरी!
अब तो सूट के कपड़े, पर्दा,
कुशन कवर में भर रही कल्लकारी!
ज़रदोज़ी की है बारीकी कर रही
मिलकर औरतें भरपूर मिला है रोजगार
सस्ती मजूरी के चक्कर में
बढ़ता जा रहा बाल शोषण
बुनकरों से सस्ते दामों में खरीदकर
मंहगे दामों पर हो रहा
बनारसी का व्यापार
फिर भी ना जाता इसपर
भारत सरकार का ध्यान!
इससे पहले की ये कलात्मक कला
दम तोड़ दें बुनकरों मिले
इसका उचित दाम!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
27/12/18

Sunday 23 December 2018

"पन्नों पर लिखने से पहले"

पन्नों पर लिखने से पहले
कविता मानस पटल लिखूँ!!
क्यों तन मन में यह टूटन है
चटका मेरा भी दर्पण है क्यों
जाते वो भूल व्यथा को उपचार"
अर्चना,"चिंतन है!
घावों पर मलहम हो जाये
ऐसा अब नवनीत करूं!
पन्नों पर लिखने से पहले
कविता मानस पटल लिखूं!!
देखो भू पर कूड़ा कचरा दुर्गंधित है,
जो यह बिखरा अपना दोष
दूसरे को मत देकर,
पथ कर दे जो निखरा
हर कोई मुस्काये फिर तो
ऐसा मैं मनजीत करूं!
पन्नों पर लिखने से पहले
कविता मानस पटल लिखूँ!!
दूजे की पीड़ा को हरकर
निर्झर-सा तू भी अब
झर-झर मैं मुस्काऊँ,
तू मुस्काये हम दोनो ही
झोली भरकर हम भी महके,
तुम भी चहको ऐसी मनहर प्रीत भरूं!
शब्दों को अर्थो के पख दे
नये नवीले गीत रचूं!!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
23/12/18

"ओ मेरे रंगरेज"

चुनरिया रंग दे रे रंगरेज!
तू रंग प्यार का इसमें भर दे!
माथे पे कुमकुम सजा दे
मेरे हाथों में लाल चुड़ियाँ पहना दे
धानी चुनरिया शीष पे धर दे
सिंदूर से मेरी मांग भर दे
तू मुझे अपनी दुल्हनया कर दे!
तू रंग प्यार का इसमें भर दे!!
ना ही मुझे सता तू गलियों में
तू मिले मुझे अब चौबारों में
खेतों की मेढ़ों- खलिहानों
क्या तू रंग रोज ही बौछारों में!
तू नये वसन पहना कर मुझको
मेरा कष्ट दूर अब कर दे!
तू रंग प्यार का इसमें भर दे!!
मेरे श्वेत लिबाज़ हुए कुचैले धो दे
निज हाथों से चमका कर
और चाँद,सितारे जड़ दे
इनमें तू टूटे मन में उमंग भर दे
इस यौवन को सतरंगी कर दे!
तू रंग प्यार का इस में भर दे!!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
23/12/18

"हाथों की बनी निशानी"

एक ही निशानी तो बची है
आलमारी जब भी खोलती हूँ
उसी पर नज़र अटक जाती है
देख फिर सहेज कर रख देती
फिनाइल की गोलियाँ भी डालती
ताकि स्वेटर सुरक्षित बनी रहे
यही तो माँ के हाथों की बनी
मेरे पास बची निशानी है!
जो पापा के बनाए बहुत सारे
गहनों से भी बेशकिमती है
गहने तो कभी कभी पहनती हूँ
जब पार्टी में जाने के लिए सजती हूँ
पर माँ के हाथों की बनी स्वेटर तो
हर साल के ठंड मौसम में पहनती हूँ!
माँ बुढ़ी हो चुकी है दूसरा
स्वेटर नहीं बुन सकती है
दोनों आँखों में मोतियाबंद से
धुँधला सा दिखाई देता है
शाम को बाहर जा नहीं पाती
मैं जब भी साथ जाती तो
तेज बहुत आगे निकल जाती
पीछे से वो आवाज़ देती है
या मैं खुद भी रूक जाती हूँ
जब वो पास आ हुई दिखती है
मैं फिर तेज चलने लगती हूँ
माँ कहती है कि तुम पापा की तरह चलती हो
बहुत तेज मैं कहती हूँ
तुम क्यों नहीं चलती
माँ कहती है मेरी उम्र की होगी
तो तुमको पता चलेगा!
जब भी मैं बाजार में पैसे
खूब बर्बाद करती तो
माँ पुरानी कहावती कहती
वक्त आने पर ही तुमको
आटे दाल का भाव पता चलेगा
रूपैया कमाओगी तब उड़ाना
मैं पलट कर जबाब देती
फिर देखना मैं क्या क्या करूँगी!
माँ बुरे वक्त के लिए भी कुछ न कुछ
बचत कर रखना चाहती और मैं
पसंद की हर चीज पाने खाने
और पहनने की शौकीन हूँ
हम दोनों बहुत भिन्न है
मैं आधुनिकता की प्रतिक
और माँ परम्पराओं की!
कुछ समानता है तो वो
चारित्रिक और सेवाभाव की!
माँ की आँखों का ऑपरेशन
मैं जल्दी करवाना चाहता हूँ
खूब रूपैये कमाऊँ फिर
माँ को नयी आँखे दिलवाऊँ
ताकि मेरे नन्हें मुन्नों के लिए
माँ स्वेटर बुन सके!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
23/12/18

Saturday 22 December 2018

"धन्य गई मेरी कलम"

धन्य हो गई मेरी कलम
जो तुमको शब्दों में लिखती है
और लिखती रहेगी जब तक
तुम चाहोंगे......
क्योंकि तुम मेरे मन की
वो शक्ति हो जिसे
मेरी कलम मेहसूस करती है.....
इसलिए तो चलती रहती है
बिना रूके बिना थके बिना
मेरे कहें मेरी काव्यों के पन्नों पे!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
23/12/18

"प्रियतम तुम्हारे वियोग में"

मैं तो मुरझा सी गई हूँ 
   जैसे कि पुष्प ! 
 मैं सुख सी गई हूँ
 जैसे की लकड़ी ! 
 मैं पाले सी हो गई हूँ
 जैसे कि पौधा ! 
 मैं खखड़ी सी हो गई हूँ 
 जैसे की फसल ! 
 मैं उजड़ सी गई हूँ
 जैसे की गाँव ! 
 मैं बंजर सी हो गई हूँ 
 जैसे कि धरती !
 मैं अवशेष सी ना बन जाउँ 
 जैसे  कि  जीवाश्म ! 
 तुम्हारे आने तक लौट आओ
 मैं तुमको एक बार देख लूँ ! 
 कुमारी अर्चना 
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
23/12/18

" नवम्बर तुम आ गए"

जार्जेट पीले पल्ले में लिपट
ठढ़ में गुनगुनाहट भी आ गई
ओस की बूँदे मोती भरकर
खेतों में हरियाली भी भा गई
सरसों पीले रंगों से सजकर
गन्ने में रसभरी आ गई
फूलों में कली सी खिलकर
रजाई ने अँगड़ाई भी ले ली
कौआ ने पाँखे खुजालाकर
चिड़ियाँ दाना भी चुनगई
गोरी पर यौवन चढ़ आया
बताओ सजना कब आओगे!
नवम्बर होता है साल का ग्यारहवाँ
वो महीना एक एक जुड़कर होते दो
एकता से विश्वास को दर्शाता!
त्योहारों का मौसम आता
दीपावली से घर आँगन चमकता
छठ में होता सुर्य की अराधना
महिला पुरूष रहते उपवास
तीज में गोरी होती हरी भरी!
हिन्दू कलैन्डर का बैसाख माह
गुरूनानक की मनाती जयन्ती
बुद्ध पूर्णिमा को ही बुद्ध को हुआ
जन्म,ज्ञान प्राप्ती और महानिर्वाण!
छा गई खुशियों की सौगात
खिली चेहरों पर मुस्कान
बच्चों ने मनाया बाल दिवस
मैं कब मनाऊँगी उल्लास
बीतने लगा नवम्बर का महीना
बताओ सजना कब आओगे!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
22/12/18

"बरगद"

छाँव देता सुरक्षा देता
घैर्य देता शांति देता
आशीष देता हवा में
शिखाएँ लहराती हुई
जमीन में घुस स्तंभ बन जाती
शाखाओ से वंश को बढ़ती
जैसे मानुष्य संतान पैदा कर!
माता की भाँति इसकी शाखाओं
और कलिकाओं से
दूधधारा का संचार होता!
वृक्षों में महत्ता के कारण
भारत का राष्ट्रीय वृक्ष कहलाता!
बरगद की ये शाखाएं
संकट में भी साथ नहीं छोड़ती
हम बूढ़े माँ बाप बेसरा कर देते
दो वक्त की रोटी पानी
एक ही माँ बाप को कई बच्चें
मिल के भी खिला नहीं पाते है क्यों ?
जबाब मैं कई जबाब मिलते!
इसका धार्मिक महत्ता कम नहीं
त्रिमूर्तियों में वट, पीपल व नीम
साक्षात ब्रह्मा का प्रतिक है
बरगद यश के निकट होने से
इसे यक्षवाश भी कहा जाता है
वट सावित्री का व्रत सुहागिने पति
व संतान के सौभाग्य व
सुख और दीर्घायु जीवन के लिए
इसकी पूजा -अर्चना कर
लाल धागे से परिक्रमा कर घेरती
पति सारी बलाओं से मुक्त रहे!
सभी नक्षत्रों में से एक माघा वट वृक्ष है
इसके नीचे पूजन,तपस्या,व्रत से
सभी मनोकामने की पूर्ति होती है!
हे बरगद के पेड़ आज मैं भी
मनोकामना माँगना चाहती हूँ
मेरा देश खुशहाल रहे
भूखे को दो जून भोजन मिले
बेरोजगार को रोजगार मिले
धर्म के नाम पर ना कभी दंगे हो
स्त्रियाँ स्वंय स्वावलंबी बने
वृद्धों को परिवार का साथ मिले
अतिथियों का सत्कार हो
बच्चों को उच्च शिक्षा मिले
शांति और सोहार्दय का माहौल बने
शत्रु देश से हम शक्तिशाली बने
देश पर मर मिटने के लिए
नौजवान सदा तैयार मिले
तिरंगा की शान ना कभी कम हो
मेरे देश का इतना बड़ा नाम हो!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
22/12/18

"बरगद"

छाँव देता सुरक्षा देता
घैर्य देता शांति देता
आशीष देता हवा में
शिखाएँ लहराती हुई
जमीन में घुस स्तंभ बन जाती
शाखाओ से वंश को बढ़ती
जैसे मानुष्य संतान पैदा कर!
माता की भाँति इसकी शाखाओं
और कलिकाओं से
दूधधारा का संचार होता!
वृक्षों में महत्ता के कारण
भारत का राष्ट्रीय वृक्ष कहलाता!
बरगद की ये शाखाएं
संकट में भी साथ नहीं छोड़ती
हम बूढ़े माँ बाप बेसरा कर देते
दो वक्त की रोटी पानी
एक ही माँ बाप को कई बच्चें
मिल के भी खिला नहीं पाते है क्यों ?
जबाब मैं कई जबाब मिलते!
इसका धार्मिक महत्ता कम नहीं
त्रिमूर्तियों में वट, पीपल व नीम
साक्षात ब्रह्मा का प्रतिक है
बरगद यश के निकट होने से
इसे यक्षवाश भी कहा जाता है
वट सावित्री का व्रत सुहागिने पति
व संतान के सौभाग्य व
सुख और दीर्घायु जीवन के लिए
इसकी पूजा -अर्चना कर
लाल धागे से परिक्रमा कर घेरती
पति सारी बलाओं से मुक्त रहे!
सभी नक्षत्रों में से एक माघा वट वृक्ष है
इसके नीचे पूजन,तपस्या,व्रत से
सभी मनोकामने की पूर्ति होती है!
हे बरगद के पेड़ आज मैं भी
मनोकामना माँगना चाहती हूँ
मेरा देश खुशहाल रहे
भूखे को दो जून भोजन मिले
बेरोजगार को रोजगार मिले
धर्म के नाम पर ना कभी दंगे हो
स्त्रियाँ स्वंय स्वावलंबी बने
वृद्धों को परिवार का साथ मिले
अतिथियों का सत्कार हो
बच्चों को उच्च शिक्षा मिले
शांति और सोहार्दय का माहौल बने
शत्रु देश से हम शक्तिशाली बने
देश पर मर मिटने के लिए
नौजवान सदा तैयार मिले
तिरंगा की शान ना कभी कम हो
मेरे देश का इतना बड़ा नाम हो!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
22/12/18

"मेरा अड़हूल का पेड़"

सिन्दूर सी लालीमा लिए
खिली खिली सी पाखुड़ियाँ
भँवरो का मन ललचाती
देखने वालों को भरमाती
काली माता को बहुत भाती
भक्त आर्शिवाद में माता को
रंग बिरंगे अड़हूल चढ़ाते!
बच्चपन में मेरे आँगन में
बड़ा सा अड़हूल का पेड़
पहले छोटा था तो झटपट
हम सब के सब तोड़ लेते थे
जैसे जैसे हम बढ़ते गए पेड़
हमसे दुगूना बढ़ते गए
अब कैसे तोड़े अड़हूल
बिन फूलों के काली माता की पूजा
हो सकेगी ना संपन्न!
हेरान जब बच्चे हो जाते तो
माँ ने एक युक्ति सुझाई
बाँस की लग्धी बनाकर
तोड़ लोंगे तुम सारे फूल
फिर तो हम खुशी से झुमे
सुबह सुबह फूल तोड़ने में
हम सारे जो लग जाते थे
पढ़ाई पर न रहता था ध्यान
मास्टर जी हाॅमवर्क रह जाता
माँ को घर के कामों से
ना मिलता कभी आराम
पापा भी ड्यूटी में लगे रहते
खुला आँगन में आया
कमरा बनाने का नया विचार
अड़हूल का पेड़ की डाली का
जलावन में हुआ प्रयोग
ना रहा आँगन ना ही पेड़
शहरीकरण ने छिन लिया
मेरा अड़हूल का पेड़!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
22/12/18

Thursday 20 December 2018

"दाई माँ"

दाई तो है वो मेरी
लगती है वो माँ जैसी
रोज मुझे नहलाती है
रोज मुझे खिलाती है
मेरे बालों को सवारती है
मेरा कपड़े साफ करती है
मेरी पोटी साफ करती है
मेरी नैपकीन बदलती है
जब मैं छोटा बच्चा था
अब मैं बड़ा हो गया हूँ
तीन साल का हो गया हूँ!
अब भी तो वो मेरा
सारा का काम करती है
स्कूल ड्रेस इस्त्री करती
मेरा लंच भी बनाती है
मेरा बैग में पैक करती है
मुझे स्कूल छोड़ने और
लिवाने रोज जाती है!
मम्मी जाॅब पर जाती है
बिजी हमेशा रहती है
शाम को वापस आती है
कभी वाट्सअप तो कभी
फेसबुक पर चिपकी रहती है
पापा ऑफिस की फाइलों में!
मेरा हाॅम वर्क तो
टीचर जी करवाती है पर दाई माँ
इसका भी घ्यान रखती है
हरपल मेरी निगरानी करती है
मैं कब सोया कब जागा
मुझे क्या पसंद क्या ना पसंद
वही बनाकर खिलाती है
दाई माँ बहुत ही प्यारी है!
जब भी वो नहीं आती है
उसकी कमी बहुत खलती है
मैं अकेला हो जाता है
खुद से बातें करता हूँ
कभी खिलौने तो कभी
काटून से काम चलाता हूँ
मुझे तो उसमें ही माँ दिखती है
और मेरी माँ में दाई माँ!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
20/12/18

"नीम"

नीम कड़वा बाहर को रहता
मिठ्ठा आँगन में बसता
बेला चमेली खुशबू देती
घर को चंदन सा महकती!
कठ़वा टुकुर टुकुर अंदर
मुँह सबका देखता कोई तो बढ़ाई करे
उसके उद्भूत गुणों की!
पर दूध में गिरी मक्खी समझ
कोई हाल चाल नहीं पूछता
न खाने पीने को कुछ देता
बूढ़ा,बुढ़िया जैसा ही
वो घर का कुड़ा हो जाता!
जो पेड़ फल देता
पुजनीय देवता बन जाता
मेरा कड़वा स्वाद से
मैं दानव बन जाता!
फिर भी बुरी बलाओं को
सदा बाहर ही रखता!
मिठ्ठा बनके जहर सबके
जीवन को ग्रहण लगाता!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ, बिहार
मौलिक रचना
20/12/18