Thursday 20 June 2019

"मेरा बेला के फूल"

बेला आई साँझ सवेरे
दिल सजना सजना पुकारे
उपवन में जब खिले बेला
गमगम कर मैं मकहूँ!
बेला भी बहुत हो आई
सजना काहे न जागे
रोज सुबह देती हूँ
तुम्हें दो चार बेला फूल
तन मन तरोताजा रहता
बारम्बार तुम यही कहते
तुम ही हो मेरी बेला हो
मेरा नाम "अर्चना" बिसर जाते
मैं रूठ जाती बेला न बुलाओ
कहीं फूल बेला ये बात सुनकर
फूल देना बंद कर दे तो
मेरी शादी का मंडप कैसे सजेगा
फिर मधुमास मिलन
बिन खुशबूओं के फीका
पर तुम ना माने सजना!
सरस्वती पूजा हो
या बेणी श्रृंगार बेला
सफेद रंग का फूल
बसंत से वर्षा ऋतु तक
भीनी गर्मी के मौसम में
तरावट का अनुभव कराते
हम इसमें डूब जाते!
बेला को मोगरा,यास्मीन भी तो कहते है
यह पवित्रता शक्ति,सादगी विन्रमता
और शुद्धता का प्रतीक है
जैसे कि हमारा प्यार!
बिन बेला फूलों के जीवन से
उमंग ही जैसे चला गया
तुम परदेश गए फिर ना लौटे
बेला के फूलों ने तुमको
मेरी कभी याद ना दिलाई
क्योंकि बेला मुझसे नाराज होकर
मेरे बाग से सुख गई
फिर मैंने बेला फूल न लगया
बेला लेने वाली कोई नहीं आया!
कुमारी अर्चना "बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

"लड़किया कैसी होती"

लड़कियाँ कैसी होती है
लड़कियाँ तो बस लड़कियाँ
लड़को से कहाँ कम होती है
वो सीधी सी सुशील सी
तेज तरार कटार सी!
मिट्टी से साँचे में ढलने वाली
मोम सी जल्द पिघलने वाली
कली सी अधखिल्ली
गुलनार सी दिखनेवाली
कचनार सी खिलनेवाली!
पत्तों सी कोमल होती
डाली सी नाजुक होती
नदी से निर्मल होती
रूई सी मुलायम होती
हवा सी दिवानी होती
पक्षी से मतवाली होती!
लड़कियाँ हिरणी से फुर्तिली
शेरनी से बहादूर होती है
सियार सी कायर नहीं
लोमड़ी सी चलाक होती है
परिस्थियों में वो खुदको
परिस्थियाँ उसमें ढलती है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

Saturday 8 June 2019

"अब मैं चुप नहीं रहूँगी"

बहुत हो गया
तुम्हारे जुल्मों का इतिहास हो गया
जाने कितनी सदियाँ बीती पर
तुम्हारी जारशाही नहीं गई
ना मेरी गुलामी!
मेरे शरीर की
मेरे गर्भ की
मेरे बेटी जनने की
मेरे खुलकर हँसने की
मेरे बहुत बोलने की
मैं अब चुप नहीं रहूँगी
बहुत हो गया!
मुझे सारे अधिकार स्वंत्रता
व समानता बराबरी में चाहिए
जैसे कि तुम पाते हो
क्योंकि अब मैं हर क्षेत्र में प्रभावी हूँ
मुझे तुम्हारे परम्पराओं से
मुझे तुम्हारे खोखले संस्कारों से
तुम्हारे नौतिकता के दो तरफा मापदंडो से
आजादी चाहिए क्योंकि
मैं आधुनिक नारी हूँ
आर्थिक रूप में स्वालंबी हूँ
शिक्षा दीक्षा में पुरूषों से कमत्तर नहीं
इसलिए तुम्हारे बचेखुचे पृत्तिसत्तात्मक से
आजादी चाहती हूँ क्योंकि
मेरे लिए क्या गलत या सही होगा
इसका निर्णय लेने की मैं अब सक्षम हूँ
अपने बच्चों का पालन पोषण करने में
वो सभी परिस्थितियों से लड़ने के लिए
मैं प्रतिबद्ध हूँ तुम साथ दो या ना दूँ!
इसलिए मेरी अंतिम चेतावनी
अब भी वक्त है संभल जाओ
समेट लो इन्हें अब मुझसे
क्योंकि मैं आजाद परिदां हूँ!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

Thursday 6 June 2019

"जेठ की दोपहरी"

चिचलाती सी धूप
माथे से टपकता आँसू
बनके जब पसीना
साँस बस चलती
उड़ती धूल बनके
हवा सुरज दवानाल उगलता
गगन न देती छाँव
पेड़ पौधे प्यासे तड़पते
इन्सान उमस से
मछली सा फड़फड़ाता
जमीन पर नंगे चलाना
हो जाता है दूरभर
पक्षियों चाल होती धीमी
दाने दाने की खोज में
एक छत से दूसरे छत पर आते
मिलों दूरी तय कर जाते!
गुलमोहर के लाल फूलों वाले पेड़
गमकाते नहीं पर आँखों को बहुत भाँते
माँ के हाथों के खट्टे मिठ्ठे आचार
तरसाते अपने की याद दिलाते!
तुम से मिलन की न आशा
संध्या भी झुलसाती गर्मी
रात चाँदनी भी न भाँती
जो तुम मिलने न आ पाते
मिलन की प्यास रहती अधूरी
बैरन भई जेठ की दोपहरी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना