Saturday 30 March 2019

"मेरी गईया"

बचपन में जब एक दिन
मेरे घर गो माता आई
ऐसा लगा मानो अब दूध की वर्षा होगी
खूब दूध खाकर हम भाई बहन मोटे बनेंगे
माँ ने ऐसा सोच गईया खरीदवाई!
हरि घास खाने गईया पहली बार
घर की चौखट से बाहर गई
किसी ने ईष्यावश कुछ खिलाया
या गईया ने खुद कुछ उल्टा पुल्टा खाया
आज तक ना पता चला
गईया तड़के सुबह मुँह से फेचकुर निकलने लगा
माँ ने जोर जोर से शोर लगाई
दौड़ी दौड़ी हम सबको जगाई
हमे तो ये सब मजाक लगा
शायद मैईया हम को आज
जल्दी जगाना चाहती हो!
डाॅक्टर को बुलाया गया
फिर भी गईया को ना बचाया जा सका
घर से थोड़ी दूर उसको गाड़ा गया
कोई जानवर ना उसे खा जाए
देर रात चमार उसकी चमड़ी छिल ले गया!
उसकी एक बछियाँ बची
माँ ने बुआ को दे दी
गाँव में हरा भरा खाएगी
शहर में रूखा सुखा खाती है
बुआ ने थोड़ पैसे के लिए
उसे दूसरे को बेच दी
फिर माँ मामा को दी
माँ की शादी में थो गोदान ना किया
उल्टे बहन से गोदान करवा लिया
ऐसा करते करते कई घर गई
अन्तिम मेरी चचेरी बहन को दी
उसने दूध मलाई खुद खाई
और उसके बच्चे तक को
धीरे धीरे हजम करती गई
झूठ कहा बछड़ा हुआ था बांछी नहीं!
फिर गईया का अंतिम बच्चा बचा था
अब मईया से ना रहा गया
गईया का फिर से घर मँगवाया
पापा को कहके अब तो जिये या मरे
यही रखूँगी बढ़िया सा घर बनवाया
अकेली बूढ़ी मईया सेवा नहीं कर पाई
नई नवेली बहु से कहा बहु ने
गोबर उठाने में अपनी नाक मुँह सिकोड़ी
सेवा कर मेवा मिलेगा इस विचार को त्यागी
घर में हँसते खेलती नन्ही सी पोती आई
दादी पोती को लौरी सुने
और तेल मालिश में लग गई
घर के पुरूषों ने इस काम से अपना हाथ उठाया
मैंने अपना मन पढ़ने में लगाया
एक दिन एक बधिया आया
गईया के अच्छे दाम देगा
ऐसा कहकर गईया को देखा
धन के लालच में माँ फँस गई बाद पश्चताई!
बूचड़ खाने जाकर उसे बेच दिया होगा
ये कहकर कलेजा फाड़ फाड़ कर मईया चिल्लाई
आज भी उसे याद करते करते
मईया की आँखें भर आती!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"तितली हूँ मैं"

तितली जैसी हूँ मैं
उर चली गगन छूने
अपने चमकते पर्रो को संभालते हुए
टिड्डा जैसे तो तुम
भँवरा का रूप बदल कर
तितली से झूठा प्यार जताकर
उसका रस पाना चाहते हो!
अपना रेन बसेरा कहीं ओर बसाकर
तितली का घोंसला उजाड़ना चाहते हो
मैं तितली उन्मुक्त गगन में
पक्षी जैसी अपने पर्र फैलाये उर चली
एक छोर से दूसरे छोर तक
जहाँ खुला हवा होगी
जहाँ सच्चा प्यार होगा
मैं वहाँ अपने साथी संग
नया घोंसला बनाऊँगी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"

Friday 29 March 2019

"ग़ज़ल"

आपको सिर झुकाना नहीं था
दिल चुरा ऐसे जाना नहीं था!
कितनी शिद्दत से चाही थी
मैंने उसको मुझको भुलाना नहीं था!
गुनगुना भी हो जिसको मुश्किल
उसको वो गीत गाना नहीं था!
भूतिया कैसी अफ़वाह थी ये
बालको को डराना नहीं था!
रात सोए पेड़ों को ही क्या
फूलों तक को हिलाना नहीं था!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

Wednesday 27 March 2019

"ग़ज़ल"

मेरी कामना से तू खेला बहुत है!
मेरी वेदना से खेला बहुत है!!
मज़ा आएगा खेलने में तेरे संग!
मेरी भावना से तू खेला बहुत है!!
तेरे होश खोने की बारी है अब तो
मेरी चेतना से तू खेला बहुत है!
तेरे तप का फल तुझको कैसे मिलेगा!
मेरी वंदना से तू खेला बहुत है!!
हर इक पल खुदा ने भी देखा है प्यारे
मेरी "अर्चना"से तू खेला बहुत है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

"ग़ज़ल"

प्रेमार्थ जब करेंगे !
तब प्रेम घट भरेंगे!!
ग़र प्यार हम करेगे!
बस दर्द ही सहेंगे!!
बेदर्द है सनम तू!
तो इश्क़ क्या करेंगे!!
तू बोएगा तू काँटे!
तो पुष्प कब खिलेंगे!!
ख़ामोश जो रहेगा!
वह ही फक़त बचेगा!!
तू बहुत बोलता है !
यानी तू अब मरेगा!!
ये कष्ट "अर्चना"के
तो प्रभु कहो कब हरेंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

"ग़ज़ल"

ह्रदय में वही रहती!
नैन में एक सदी रहती!!
मिल गयी कोई महबूबा
फिर न कोई कमी रहती!!
गर हुआ इश्क का सौदा!
लब पे न खुशी रहती!!
जिन्दगी में अमन होता!
पुष्प डालियाँ खिली रहती!!
हर जगह दौड़ती गमगम!
मिल पवन में घुली रहती!!
उस मकाँ में गर कोई रोता!
खिड़कियाँ तो लगी रहती!!
खेलती गर कोई बच्ची!
सुनने को तो मिली रहती!!
जब सितारे गर्दिशों में !
बिजलियाँ तो गिरी रहती!!
जो खफ़ा न होती" अर्चना"
जिन्दगी भी सही रहती!!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना 

"ग़ज़ल"

जला दूँ क्या?
बहा दूँ क्या?
जगे रहते
सुला दूँ क्या?
चमन को फिर
सजा दूँ क्या?
तुम्हारा गम
हटा दूँ क्या?
बड़े आतुर
चुपा दूँ क्या?
तुम्हें सुन्दर
बना दूँ क्या?
बहुत नफ़रत
भुला दूँ क्या?
कोई किस्सा
सुना दूँ क्या?
बहुत पीते
छुड़ा दूँ क्या?
शरारत को
भुला दूँ क्या?
गुड़ागर्दी
हटा दूँ क्या?
कुकर्मी को
सजा दूँ क्या?
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

"ग़ज़ल"

बुझी राख सी मैं सुलगती!
याद तेरी कांटे सी चुभती!!
गोधूली से छाई उदासी
और निशा है आहें भरती!!
दिन भर तेरे प्रतिक्षा में
कितनी कितनी बार सँवरती!
अदा वो छुप के देखने वाली
दिल दिमाग से नहीं उतरती !!
तुम जो ना मिलते "अर्चना"
मैं भी इतना कहाँ निखरती!!
कुमारीअर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

ग़ज़ल

कुछ हुनर भी ऐसा भी आना चाहिए
उनके दिल पर हक़ जमाना चाहिए!
लोग धोखे होश में ही खा रहे
बेखुदी में चोट खाना चाहिए!
जालिमों के शहर में ऐ बाबुओं
रौब अपना भी दिखाना चाहिए!
दिल जहाँ था आज तक ठहरा वहीं
बात यह उनको बताना चाहिए!
जब उजाला सामने हो आपके
तब क़दम आगे बढ़ाना चाहिए!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

ग़ज़ल

पौधो की ही सब माया है
हम सबको मिलता छाया है!
माली ने मेहनत से सींचा है
अंकुर तब बाहर आया है!
पेड़ो को जब जल डाला है
उससे ही तो फल खाया है!
मौसम की ही बलिहारी से
फल हमने इनसे पाया है!
माली की कोशिश सफल हुई
उससे ही तो फल खाया है!
फूलों ने ऐसी दी खुशबू
तन मन को महकाया है!
पेड़ो का फलना लख-लखकर
माली का मन हर्षाया है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"ग़ज़ल"

तेरे बाँहों के साये में सुबह शाम कर देंगे,
प्यारी भरी ज़िन्दगी तेरे नाम कर देंगे!
पाया है हमने सितम तेरी रूस्वाई में
करके तमाम मिन्नतें आबाद कर देंगे!
नैनों के तीरों से जख़्मी किया है तूने
सपनों से सजती मौजें साकाम कर देंगे!
तमन्ना है फूलों का तबस्सुम तो दमके,
कुम्हलाई कलियों से भादों के नाम कर देंगे!
तेरे हरजाइपन ने लूटा की बेरहम होकर
तेरे पनाहगारों को खुलेआम कर देंगे!
खुशियों की बात बतियाये हर घड़ी हर पल,
उदासियाँ तुम्हें छु न जाये,नीलाम कर देंगे!
ज़लालत करके ठुकराना कमीनों की आदत,
वैसी चाहतों को "अर्चना"सलाम कर देंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

सब्र बाधे सो रहा है आदमी
क्यों सिसक कर रो रहा है आदमी!
शोर की चींखे,यहाँ पे ग़ुम गई
ज्यूँ हताश हो रहा है आदमी!
चाहतें हैं बढ़ रही हर रोज ही
पौध कैसी बो रहा है आदमी!
कुछ न कहना ही यहाँ बेहतर लगा
हाथ ख़ू से धो रहा है आदमी!
प्यार का ही करिये अब तो'अर्चना'
क्यों दुश्मन बनता जा रहा है आदमी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

ग़ज़ल

बहुत ही नफरते मैं पा रही हूँ
कहाँ इस बात से घबरा रही हूँ!!
तुम्हें जल्दी भला किस बात की है
जरा ठहरों मैं खुद ही आ रही हूँ!
खता मुझसे हुई थी बाँकेपन में
जिसे मैं याद कर पछता रही हूँ!
समझता तो नहीं जज़्बात मेरे
फिर उसे प्यार क्यूँ बरसा रही हूँ!
जरा समझा करो जज्ब़ात मेरे
इशारों में तुम्हें समझा रही हूँ!
मुझे भी दर्द देती है मुहब्बत
जिन्हें हँसकर मैं सहते जा रही हूँ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

ज़िन्दगी को जिया ज़िन्दगी की तरह!
तीरगी को लिया रोशनी की तरह!!
कैसे इंसानियत की हो उम्मीद अब,
आदमी अब कहाँ आदमी की तरह!
दर्द भोगा मगर सब निभाती रही
सब उसूलों को मैं बन्दगी की तरह!!
आलमे इश्क़ में ये हुआ उम्र भर,
मेरी चाहत रही तिश्नगी की तरह!
"अर्चना"ये तमन्ना है बजती रहूँ
तेरे अधरों पे मैं बासुरी की तरह!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना कटिहार,बिहार

ग़ज़ल

मैं गीत रच,गाती रहा
वो चिट्ठियां पाता रहा!
विश्वास का दीया सदा
ले रोशनी,आता रहा!
वो प्रेम से ही प्रेम कर
नेहल सादा भाता रहा!
सुलझी हुई सी डोरियाँ
बेकार उलझाता रहा!
दोस्त दुश्मन कुछ नहीं
ये समय बतलाता रहा!
आनंद लाओ "अर्चना"
ये सबक सिखलाता रहा!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

"ग़ज़ल"

कुछ हुनर भी ऐसा भी आना चाहिए!
उनके दिल पर हक़ जमाना चाहिए!!
लोग धोखे होश में ही खा रहे!
बेखुदी में चोट खाना चाहिए!!
जालिमों के शहर में ऐ बाबुओं!
रौब अपना भी दिखाना चाहिए!!
दिल जहाँ था आज तक ठहरा !
वहीं बात यह उनको बताना चाहिए!!
जब उजाला सामने हो आपके !
तब क़दम आगे बढ़ाना चाहिए!!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

ग़ज़ल

हिन्द की कहानी लिखेंगे
अपनी हम जुबानी लिखेंगे!
मरके जो अमर हो गए हैं
उनकी हम निशानी लिखेंगे!
दिल से नफरतों को मिटाकर
इक ग़ज़ल नूरानी लिखेंगे!
वीरों की शहादत बयां कर
उनकी हम बयानी लिखेंगे!
मर मिटे वतन पर जो सैनिक
कर गुमाँ गुमानी लिखेंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

तेरी आँखों से दिल में उतरने लगे
गरमियों से तेरी ही पिधलने लगे!
रात दिन ठोकरें खा रहे थे मगर
प्यार जबसे हुआ है सँवरने लगे!
हार थे हम सनम के गले का मगर
टूटकर मोतियों सा बिखरने लगे!
हम तो पागल हुए है तेरे इश्क़ में
तुम हमें क्यूँ पराया समझने लगे!
मानती हूँ कि कमियाँ बहुत है अभी
साथ तेरा मिला तो सँभलने लगे!
बेवफा ना कहो'अर्चना' को सनम
तुझको दिल में बसाकर निखरने लगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

हिन्द की कहानी लिखेंगे
शान से जवानी लिखेंगे
मरके भी हो मेरे प्यारे
मिलन की रवानी लिखेंगे
दुश्मनी से नफ़रत मिटाकर
यार को दिवानी लिखेंगे
बेवफा तेरा क्या करेंगे
जब वफ़ा का पानी लिखेंगे
शारदे विधा तू बुद्धी दें
"अर्चना" कुर्बानी लिखेंगे!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

ग़ज़ल

उनके आमद की घड़ी है
दिल में मेरे खलबली है!
लब पे मेरे तश्नगी है
सामने प्यासी नदी है!
खुदगरज़ है सब यहाँ के
यह जहाँ ही मतलबी है!
इश्क़ की मारी हुई हूँ
काम मेरा आशिक़ी है!
आज की शब आ ही जा तू
कर्ब है तश्नालबी है!
जा मिले है अब के ऐसे
जैसे कोई अजनबी है!
आ गले से लग जा मेरे
ये गुजारिश आखिरी है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

हिन्द की कहानी लिखेंगे
अपनी हम जुबानी लिखेंगे!
मरके जो अमर हो गए हैं
उनकी हम निशानी लिखेंगे!
दिल से नफरतों को मिटाकर
इक ग़ज़ल नूरानी लिखेंगे!
वीरों की शहादत बयां कर
उनकी हम बयानी लिखेंगे!
मर मिटे वतन पर जो सैनिक
कर गुमाँ गुमानी लिखेंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

ग़ज़ल


याद में तेरी हम भी बहलने लगे
चाह में मेरी तुम भी फिसलने लगे!
शर्म आती है कैसे बताऊँ तुम्हें
धीरे धीरे से दिल में उतरने लगे!
तुमने देखा है जब से हमे प्यार से
बात सच है तभी से सँवरने लगे!
हो गई तुम से उल्फ़त हमें इस कदर
सुब्ह तेरी गली से गुजरने लगे!
ढूढ़ती तू जिसे हर गली "अर्चना"
ये वहीं तो है दिल में ठहरने लगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

वादिए इश्क़ मे जब भी आया करो
लौट कर जाने जां तुम न जाया करो!
ख्व़ाब में रोज़ आके सताया करो
और दिल में मुझे तुम बसाया करो!
इक क़दम प्यार का जब बढ़ाऊँ
सनम दो क़दम तुम भी आगे बढ़ाया करो!
गीत के जैसे मैं गुनगुनाती रहूँ
तुम ग़ज़ल की तरह मुझे गाया करो!
तेरी मजबूरियों की न बाइस बनूँ
नाज़ मेरे न इतना उठाया करो!
अर्चना को न तड़पाओ ऐ जाने जां
तिश्नगी मेरे दिल की बुझाया करो!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

"ग़ज़ल

आप पहले बिखर जाइए
आइना देख निखर जाइए!
जिससे शोहरत बढ़े आपकी
ऐसा कुछ काम कर जाइए!
जिनमें फूलों है बिखरे बहुत
राह से उस गुज़र जाइए!
शायरी है समंदर अगर
थोड़ा गहरे उतर जाइए!
मुन्तज़िर है कोई"अर्चना"
शाम होगी तो घर जाइए!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

जब तेरी याद सताती है!
ये रूह भी अश्क बहाती है!!
इंतज़ार में रात और दिन,
इक पगली राह सजाती है!!
यादों के आँसू पी पीकर,
अंतस की प्यास बुझाती है!!
भोली भोली सूरत वाली,
सबका होश उड़ाती है!!
चले"अर्चना"जब बलखा के,
जान पे फिर बन आती है!!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल

तेरी आँखों से दिल में उतरने लगे
गरमियों से तेरी ही पिधलने लगे!
रात दिन ठोकरें खा रहे थे मगर
प्यार जबसे हुआ है सँवरने लगे!
हार थे हम सनम के गले का मगर
टूटकर मोतियों सा बिखरने लगे!
हम तो पागल हुए है तेरे इश्क़ में
तुम हमें क्यूँ पराया समझने लगे!
मानती हूँ कि कमियाँ बहुत है अभी
साथ तेरा मिला तो सँभलने लगे!
बेवफा ना कहो'अर्चना' को सनम
तुझको दिल में बसाकर निखरने लगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

ग़ज़ल


नजर से वो जैसे हटा धीरे धीरे
बताऊँ मैं क्या फिर हुआ धीरे धीरे!
नजर उनकी जैसे टकराई मुझ से
तो पलकों का पर्दा गिरा धीरे धीरे!
लगी आग ऐसी मुहब्बत की दिल में
मेरा दिल ये जलने लगा धीरे धीरे!
भूला दे पुराना वो हम अहदों पैमाँ
करे फिर से अहदे वफ़ा धीरे धीरे!
जहाँ तक मेरे पावँ जायेगे भगवान
वहीं तक दिखे रास्ता धीरे धीरे!
कि महकी हुई जुल्फ़ो का दो पट्टा
शबे वस्ल में जो हटा धीरे धीरे!
मुहब्बत ख़ता है अगर अर्चना अब
तो होती रहे ये ख़ता धीरे धीरे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

Tuesday 26 March 2019

"तुम जो नहीं मेरी ज़िन्दगी में"

तुम जो नहीं ज़िन्दगी में
साँसों की डोर है कि
टूटने का नाम नहीं लेती
तेरे दीदार को आँखे तरस रही
जैसे बारिश के लिए
प्यासी धरती हो!
मेरा मन फिर से जीना चाहता है
ये आसमान में तितलियों जैसा
उड़ना चाहता है
पर संग जब तुम हो!
मेरा दिल भी प्यार करना चाहता है
फूलों जैसा महकना चाहता है
पर क्या करूँ तुम जो नहीं
मेरी ज़िन्दगी में!
तुम बिन ये ज़िन्दगी कैसी
बस साँसों चलती है
सारी उमंगे,
सारी तरंगे,
सारी तमन्नायें
बुझ सी गई हैं जैसे कि कोई राख हो
जैसे कि कोई राख हो!
कुमारी अर्चना'बिट्टू' मौलिक रचना

Monday 25 March 2019

"अधुरी ज़िन्दगी"

हमारी ज़िन्दगी ही कुछ ऐसी है
कोई ना कोई ख्वाब रहेंगे ही
कोई ना कोई ख्वाईस अधुरे रहेगी ही
एक पूरी होती तो दुजी रह जाती!
खूदा ने इन्सान को अधूरा बनाया
स्त्री के बिना पुरूष,पुरूष के बिना स्त्री
खुदा ने प्रकृति को अधुरा बनाया
प्रकृति को मानव पर,मानव को प्रकृति
खुदा ने वक्त को भी अधूरी बनाया
आधा दिन आधा रात दिन में
सूर्य और रात को चाँद!
खुदा ने जीवन को भी अधुरा बनाया
आधा सुखमय आधा दु:खमय
खुदा ने मानव के गुण को अधुरा बनाया
अच्छा और बुराई से युक्त
ईश्वर की कृति भी अधुरी है
नपुंसक लिंग,अक्षम इन्सान!
गर ज़िन्दगी में तुमको कुछ अधुरा मिलता है
तो इसे खुदा की कृति समझो
क्योंकि जब उसकी बनाई सृष्टी अधुरी है
तो हम भी अधुरे होगें!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"ज़िन्दगी तू ऐसी क्यों है"

ये ज़िन्दगी अजीब सी है
माँगो कुछ तो देती कुछ है
मैं जितना हँसना चाहती हूँ
ये मुझे उतना रूलाती है
मैं हर पल खुशी चाहती हूँ
ये हर पल मुझे गम देती है!
आखिर ज़िन्दगी मुझसे चाहती क्या है?
मैं इससे कुछ ओर चाहती हूँ
ये मुझसे कुछ ओर चाहती है
ये ज़िन्दगी अजीब सी है
माँगो कुछ तो देती कुछ है
जो प्यार नहीं चाहता है
उसको ही प्यार देती है!
जो जिसे पाना चाहता है
उसको कोई ओर मिलता है
जो कुछ नहीं पाना चाहता है
उसको सब कुछ देती है
जो इन्तजार नहीं कर सकता है
उसको हमेशा इंतजार करवाती है!
उफ् ये ज़िन्दगी
मैं हमेशा सोचती हूँ
तू ऐसी क्यों है?
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

Monday 18 March 2019

"मैं कविताओं में हूँ"

मैं कविताओं में हूँ
कविता मुझमें है
मुझे कविता लिखना
कविताओं को मेरा लिखना पसंद है!
दोनों की भावनाओं को
जाहिर करने के लिए कलम चाहिए
ये कलम मेरी कल्पना है
जिसे मैं अपने कोरे जीवन पर लिखती हूँ
कभी प्रेम तो कभी विरह
कभी खुशी तो कभी गम
ज़िन्दगी के हर पहलू को
इन्द्रधनुष के सतरंगी रंगों से भरती हूँ
जब मैं कविता लिखती हूँ
तो कविता मेरे हृदय से निकलती है
दिमाग उसे शब्दों का रूप देता है
मैं कविता में हूँ
कविता मुझमें है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार मौलिक रचना

"मेरे चाँद"

चाँदनी की याद में
आज चाँद रो पड़ा
देख चाँद को रोता
सितारे भी रो पड़े!
आसमाँ भी दर्द से
गले तक भर आया
बरखा बनकर आसूँ
जंमी पे छलक पड़े!
रात आज चाँदनी की रोशनी से
और चाँद अपनी चाँदनी से दूर रहा
एक रात की जुदाई
सदियों की जुदाई लगी!
सोचो ग़र चाँदनी ना होगी तो
चाँद कभी ना चमकेगा
ना ही सितारे दमकेंगे
तुम बिन मेरे मुख की आभा भी
फिक्की है मेरे चाँद!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

Tuesday 12 March 2019

"मर रही हूँ मैं,पर जिंदा रहेगी मेरी कला"

रोज एक एक दिन कर
यूँ ही वक्त के साथ मर रही हूँ
मैं मर रही मेरी कला!
ये ख़ून-पसीना नहीं
जो यूँ ही बह जाये
ये मेरी भावनाएँ है
जो दिल से निकलती है
मेरे आँखो के अश्रु नहीं
जिन्हें यूँ ही बह जाने दूँ!
ये मेरा सृजन है
इसे अपनी कल्पनाओं से
भोगे हुए जीवन से पाया है
मैं अपनी कला को
जाया न जाने दूँगी!
यूँ ही कटी पतंग जैसी
कहीं खो जाने न दूँगी
अपने वजूद को!
मैं इसे कविता का रूप दूँगी
समाज के लिए सार्थक करूँगी!
मर रही हूँ मैं
पर जिंदा रहेगी मेरी कला!
कुमारी अर्चना'बिट्टू' मौलिक रचना

Monday 11 March 2019

"मैं हूँ तुम हो और उलझन है"

मैं हूँ,तुम हो और दोनों के बीच उलझन है
हम दोनो के बीच कशमश है
दोनो के उलझन अलग अलग है
ये उलझन हम दोनो की एक नहीं होने देती
क्योंकि दोनो के मन अलग अलग है
दोनों के विचार अलग अलग है
दोनों के रास्ते अलग अलग है
फिर दोनों की मंजिल कैसे एक हो
जब मंजिल एक नहीं तो
हम कैसे एक हो सकते है
इसलिए हम दोनो अलग अलग है
मैं हूँ तुम हो और उलझन है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"अधुरी ज़िन्दगी"

हमारी ज़िन्दगी ही कुछ ऐसी है
कोई ना कोई ख्वाब रहेंगे ही
कोई ना कोई ख्वाईस अधुरे रहेगी ही
एक पूरी होती तो दुजी रह जाती!
खूदा ने इन्सान को अधूरा बनाया
स्त्री के बिना पुरूष,पुरूष के बिना स्त्री
खुदा ने प्रकृति को अधुरा बनाया
प्रकृति को अधुरा बनाया
प्रकृति को मानव पर मानव को प्रकृति
खुदा ने वक्त को भी अधूरी बनाया
आधा दिन आधा रात
दिन में सूर्य और रात को चाँद!
खुदा ने जीवन को भी अधुरा बनाया
आधा सुखमय आधा दु:खमय
खुदा ने मानव के गुण को अधुरा बनाया
अच्छा और बुराई से युक्त
ईश्वर की कृति भी अधुरी है
नपुंसक लिंग,अक्षम इन्सान!
गर ज़िन्दगी में तुमको कुछ अधुरा मिलता है
तो इसे खुदा की कृति समझो
क्योंकि जब उसकी बनाई सृष्टी अधुरी है
तो हम भी अधुरे होगें!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"मैं दरख़्त का वो पत्ता हूँ"

मैं दरख़्त का पत्ता हूँ
जो ना पेड़ से टूटता हूँ
ना पेड़ पर सही रहता हूँ
ना मैं हरा होता हूँ
ना सुख कर पीला पड़ता हूँ
बस इसी उधेरबुन में रहता हूँ
मैं वजूद में हूँ भी या नहीं
पेड़ के बिना वैसे ही मैं तुम बिन!
कुमारी अर्चना'बिट्टू' मौलिक रचना

Sunday 10 March 2019

"गुलाब की कलम"

बच्ची थी जब मैं
बचपना कुट-कुट कर भरा था मुझमें
अल्लड़ थी तब मैं
तितली जैसी चंचल थी मैं
रोज सवेरे अपने मित्र मंडली के संग
फूल चुराने जाया करती थी तब मैं
फूल तो फूल कली तक तोड़ लेती थी मैं
थोड़ी देर बाद फूल ही बन जाएगी
एक बार किसी की लगी
गुलाब की कलम उखाड़ लाई मैं
अपने घर के बाहर की क्यारी में लगाई
उसे गोबर का पुत्ता भी उस पर लगाई
पानी भी डाला मनभर उसमें
फिर भी बगैर धूप के ना बच सका वो
फिल एक दिन अपनी सखी के घर गई मैं
उसके खुले आँगन के कीचड़ में कमल सा
गुलाब का पौधा से पत्ता फुनक रहा था
ये देख ललचाई में
माँ की बात याद आई
अपना कोई राज़ या प्रियवस्तु किसी कोमत देना
और अगर देना तो फिर लेना मत
पर अब तो गुलाब की कलम दे चुकी थी मैं
अब पश्चात होता क्या जब चिड़ियाँ चुंग गई खेत!
मैंने अपनी सखी से कहा
ये पौधा मुझे दे दो
मेरा सुख चुका है
उसने देने से मना किया
कहा पौधा मैंने सींचा है
अब बस एक रास्ता बचा था
फिर से चोरी छुपे से गुलाब की
कलम को उखाड़ लाना
ला कर फिर अपने घर के क्यारी में लगाया
पौधा वैसा का वैसा हो गया
फिर से माँ की बात याद आई
किसी को कुछ देकर मत लेना
सखी "नुतन"से माफ़ी मांगी
कहा गुलाब की कलम फिर से
चुराकर तुम्हारे लिए लाउँगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"लकड़ी तोड़ती वो औरत"

काली काली सी तोड़ रही थी
कठोर हाथों से नाजुक सी लकड़ी!
पतरी छितरी सी काया थी
पर गदराया था उसका सीना!
कभी गिरे पत्तों को चुनती तो
कभी छोटी टहनियों को तोड़ती
कोई हथियार भी ना था पास नहीं
तो चीर देती उसका सीना!
बस नाखूनों से रात भर खूरोती रही सीना!
तो कभी पकड़ती रही बाल
हाथ पाँव मारती रही
जैसे शेर के पंजे में फसी हिरणी हो
चिखकर लोगों को जगा ना सकी
कपड़े से बंधी थी उसकी जुबान!
उसे क्या पता था अगर वो
जोर जोर से आवाज देती तो भी
लोगों के बंद पड़े है कान और
मृत पड़ी थी मानवता
जिसको जगाना ना था आसान
दूसरे के फटे में कोई टाँग नहीं देता
सब पल्ला झाड़ देते है कोई जिये या मरे!
और भी औरत थी जंगल में पर कोई
कुछ ना बोली मौन व्रर्त था आज उनका!
दबंग लोगों की पंचायत बैठी
लड़की पर सारी गलती मड़ी
कोई सुबूत ना मिला कानून को
आँखो पर बंधी पैसे की पट्टी
सिवा उसकी लूटी इज्जत के!
दलित की बेटी हो या
आदिवासियों की बहू बेटियों की
इज्जत व आँबरू आज भी
पुरखों से गिरबी है स्वर्णो की
वो सारे पुरूषो को भी बंधवा मजदूर है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

Saturday 9 March 2019

ये कैसा रोग मुझे लगा गए"

ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
प्रेम देकर भी प्यासा छोड़ गए
ना दिन को चैन ना रात को आराम!
डाॅक्टर भी नब्ज़ पकड़कर
मर्ज की दवा नहीं लिख सकता
दुआ भी ब़ेअसर हो जाती
ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
परेशानियों का सबब़ दे गए
सुक़ून की दुनिया उजाड़ गए
आँखो से नींद ले उड़ गए
चेहरे पे उदासी दे गए
ओठों की हँसी ले गए
ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
प्रेमरोग कहते है इसे
खूदनसीब़ो को मिलता है
पत्थर दिल क्या जाने
प्यार किस चिड़िया का नाम है
जिसे होता है वही जानता है
ये कैसा रोग मुझे लगा गए!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना