Sunday 15 July 2018

"नपुंसक"

"नपुंसक" संभोग से पहले ही
जब किसी पुरुष का वीर्य
जब स्खलन हो जाता
जैसे लोहे में जंग लगने पर
कमजोर हो कर टूट जाता
जैसे लकड़ी में घुन लगने पर
अंदर से खोखला हो जाती
दीमक लगने पर किताबें बेकार
टहनियों से पत्तियां गिरने पर
पेड़ ठूंठ सा बन जाता
मौन खडा तो रहता पर
खुद की रक्षा बाह्य खतरों से
मजबूती से न कर पाता
वैसे ही नपुंसक पुरूष होता है
जिता जागता जिंदा लाश!
जिसे समाज नाम का गिद्ध तो
नाचता खरोंचता रहता ही है
वो अंदर ही अंदर घुटता रहता
टूटता जुड़ता रहता है
खुखुद में अवसाद की छांव में घिर जाता
विश्वास की कमी से
अंदर ही अंदर डर को समाएं रहता
भीड़ देख के खुद से घबराता
आँख मिलना,बात करने में
औरतों से भी शर्माता जाता
हार्मोन में बदलवा से ये सब होता
पीडित व्यक्ति खुदको
बीमार समझने लगता!
कि मैं एक आधा अधुरा इंसान हूं
अधुरा है मेरा यह जीवन है
जैसे बांझिन जैसी कोई औरत हो
संतान पैदा कर स्त्री पूरी होती
वैसे ही पुरूष स्त्री को संतुष्ट कर!
काम पूर्ति का मुख्य कर्ता
सृष्टि का विकास कर्ता स्वं में असंतुष्ट रहता
वैवाहिक जीवन की गाड़ी
खींचने में अक्षम हो जाता जैसे
कुशासन और भष्ट्राचार से
सरकारें और व्यवस्थाएं
नपुंसक हो जाया करती है
जरूरत होती है इमानदार और
निष्ठावान,विवेकयुक्त व्यक्ति की
जो शासन की बागडोर को चला सके!
नपुंसक व्यक्ति को शर्माने की बजाय
परिवार का सहारा व उपचार है
नपुंसकता से आसान छुटकारा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
15 /7 / 18