Sunday 31 January 2021

"किनारा"


नदी को पार करती किस्ती हो
समुद्र में गोता लगाता जहाज
ज़िन्दगी की धारा हो
सब किनारा पर जाना चाहते हैं।

किनारा भी चाहता है
मुसाफिर उसके पास
सही सलामत आएं
फिर नयी राह जाएं।

मैं भी ज़िंदगी का 
किनारा चाहती हूं
एक छोर तुम हो
दूजे छोर पर मैं हूं
बीच में मझधार है
जाऊं तो आखिर कहां?

मैं भी तो किनारा हूं
शायद इसीलिए
तुम मुझे छोड़ गए
बहुत ही दर्द दे गए।

दोनों किनारे कभी मिल
ही नहीं सकते
एक दूजे के बिन हम
जी नहीं सकते।

फिर क्या सदा किनारे
पर ही खड़े रहेंगे?
कि मझधार के शांत होने 
का इंतजार करेंगे
आखिर कब तक
यूं ही किनारे रह के
अपनी-अपनी जिंदगियां काटेंगे।

कोई तो रास्ता होगा
दोनों के मिलने का
क्यों न किनारे को मिटा दें 
दोनों एक दूसरे में समांकर।

कुमारी अर्चना
मौलिक रचना