Thursday 16 May 2019

"कालाधन"

हाँ,काला धन हूँ
मुझमें से काला निकाल दो तो
मैं केवल"धन"हूँ
फिर भी लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं
काला,काला,काला कह के
उसमें मेरा क्या दोष है!
मुझे तो काला कुछ धन लोलप्सु लोगों ने बनाया है
मैं तो "धन"के रूप में "लक्ष्मी"का रूप हूँ
लोगों के घरों में
लोगों के दिलों में
कभी-कभी दिमाग में छा जाता हूँ!
फिर क्या मैं लोगों की बुद्धि भ्रष्ट कर देता हूँ
या यूँ कह लो घरती के बुद्धजीवि को
अपने मुठ्ठी में भर लेता हूँ
फिर अट्टाहस मारता हूँ हा हा हा
देखो मैं शक्तिशाली हूँ मानव नहीं...
जिसके पास जाता हूँ
वो धनाढ्य कहलाता है
जिसके पास से आता हूँ
वो कंगाल कहलाता है!
समाज,बाजार,दुनिया सब मुझ से चलता है
मैं नहीं तो जग अंधेरा है दिन के उजाले में!
मैं समाजिक मान,सम्मान,प्रतिष्ठा,रूतबा हूँ
चलती है मेरी हर जगह जहाँ में जाता हूँ
और मुझे धारण करने वाला हस्ती बन जाता है!               इसलिए मैं केवल"धन" हूँ
जैसा लोगो के रक्त में फर्क करना मुश्किल है
वैसे मुझ में करना!
किसी भूखे नंगे फकीर से
पूछो तो बतलाएगा पैसे का मोल
मेरा(कालेधन) प्रयोग दान,पुण्य,सेवा,भलाई में कर
मुझे काला से सफेद बनाया जा सकता है!
जो मुझे कालाधन कह मेरा
निरादर,अपमान और तिरस्कार करते है
इसलिए मैं केवल "धन"हूँ कालाधन नहीं!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"ऐ नानी तुमको देखा नहीं"

ऐ नानी तुमको देखा नहीं
जैसे भगवान को देखा नहीं
क्या तुम भगवान के घर गई हो
जो बुलाने पर भी नहीं आती!
कहते है भगवान जिनको बहुत प्यारे लगते है
उन्हें जल्दी बुला लेते है
क्या तुम इतनी प्यारी थी
गोल मटोल चाँद सी!
कहते है मरने के बाद लोग
तारे बन जाते है टिमटिमाते हुए
दूर से अपनों को दिख जाते है
पर मैं अनगनित तारों में तुमको कैसे ढूढूँ
नानी मैंने तुमको देखा नहीं!
कोई फोटो भी तो नहीं
माँ कहती थी उस जमाने में
लोग फोटो नहीं खिचवाते थे
काश् तुम्हारी कोई निशानी होती
उसी को प्यार कर लेती!
माँ कहती है तुम बहुत बढ़िया खाना बनाती थी
लोग ऊँगलिया चाटते रह जाते थे
तुम बाजार करने में बड़ी तेज थी
सब्जी और फल भी बेचती थी
माँ को खाना बनाने नहीं देती थी
तुम बहुत ही मेहनती थी
घर की "लक्ष्मी" जैसी थी
सुबह उठकर सारा काम करती थी
और देर रात को सोती थी
खेती में भी मजदूरों से करवाती थी!
माँ कहती ग़र तुम जिंदा रहती तो
खुब हमारी तेल मालिश करती
बढ़िया खाना बनाकर खिलाती
नानी तुम इतनी जल्दी क्यों चली गई
मेरे बड़े होने के बाद इस दुनिया से जाती
तुम बिमारी से माँ की शादी के दो
साल बाद ही क्यों मर गई
नानी तुमको देखा नहीं!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"मैं दरख्त का वो पत्ता हूँ"

मैं दरख़्त का पत्ता हूँ
जो ना पेड़ से टूटता हूँ
ना पेड़ पर सही रहता हूँ
ना मैं हरा होता हूँ
ना सुख कर पीला पड़ता हूँ
बस इसी उधेरबुन में रहता हूँ
मैं वजूद में हूँ भी या नहीं
पेड़ के बिना वैसे ही मैं तुम बिन!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

Friday 10 May 2019

"इस रात के अंधेरे में"

इस रात के अंधेरे में
नाम न लो मोहब्ब़त का
ये फिसलते दिल
भटकती नजरों का धोखा है!
ये कुछ और नहीं दौलत वालों के
खेलने का एक खिलौना थी
अब तो सभी खेलते है दिल से
एक दुसरे के जज्बातों से!
ये दुनिया एक सब्जी बाज़ार है
मौल भाव करके जो चाहे खिरीद लो
मोहब्बत भी दो चार आने में बिकती है
चाहे तो हजार खरीद लो
इस रात के अंधेरे में
नाम न लो मोहब्बत का!

कुमारी अर्चना"बिट्टू"

"ज़िन्दगी रेन्बो जैसी"

जाने ज़िन्दगी क्यों पल पल बदल रही
संतरंगी रेनबो जैसी
पल में आँखो के सामने आती
पल में ओझल हो जाती
आँख मिचौली का खेल जैसी!
कभी लाल तो कभी हरी हो जाती
इससे पहले कि मैं कुछ सोचती
वो मेरे बारे में फैसला कर लेती!
मैं जो करना चाहती
वो मुझसे कुछ और करवाती
जाने ज़िन्दगी क्यों पल पल बदल रही
सतरंगी रेनबो जैसी!
ज़िन्दगी के खेल निराले है
इसको सामने किसका बस चला है
अच्छे अच्छे पस्त है इसके सामने
फिर मेरी क्या हस्ती है
मैं तो कुछ भी नहीं
मुझे वही करना होगा
जो वह चाहती है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"

"दोहरी ज़िन्दगी"

बहती पवन शांत है
सागर की लहर शांत है
नदी की धारा शांत है
फिर मेरा मन क्यों अशांत है
वो निर्झर जलधारा के समान
निशब्द मौन रहना चाहता
अंर्तमन से अपने सवालों का जबाब चाहती
क्यों अन्दर की उलझन
मेरे वातावरण में नजर आती क्यों है
किस लिए,किसके लिए?
मैं इन अनसूलझी उलझनों का विकल्प
नहीं आज सामाधान चाहती हूँ
जो अन्दर ही अन्दर मुझे
खोखला करती जा रही
निरन्तर क्षीण होता मन की उर्जा
शक्ति ने मुझे असक्षम बना दिया
ना मेरा रहा ना किसी और का हो सका
क्योंकि मैं कभी मेरे मन को तो कभी
मेरे शरीर को ढोती हूँ
मैं इस दोहरी जिन्दगी का अंत चाहती हूँ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

"अपनी धड़कनों को सुनो"

अपनी धड़कनों को सुनो
जो धड़क रहा तुम्हारे सीने में
ये मेरा दिल है जो मैंने प्यार से
तुमको दिया जो मेरे दुनिया को
अलविदा कहने के बाद भी
हरपल रहेगा तुम्हारे पास
मैं पास रहूँ ना रहूँ!
मेरा प्यार हमेशा तुम्हारा साथ रहेगा
मेरा दिल बनकर तुम्हारे अंदर
मेरे एक बार फिर से जीने के लिए!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"काश् मैं फूल खाती"

इन्सान सब कुछ खाता
जीव जन्तु पशु पक्षी पेड़ पौधे
कीड़े-मकोड़े फिर फूल क्यों नहीं खाता
सोचा क्या किस्मत है फूलों की
ईश्वर के चरणों में रहने की
कितने सौभाग्यशाली है
ये कितने कोमल है
थोड़ा जोर से मसल दो तो
रौनक खत्म हो जाती पौधो की
टहनी से तोड़ दो
जान खत्म हो जाती है!
कुछ दिन हरे हरे रहकर
फिर सुख जाते है
हमे खुशबू देते खुशी देते
हम अपने शौक के लिए
इनका इस्तेमाल करते
फिर जब चाहे इनको तोड़ लेते
टहनियों से उखाड़ देते
जड़ से काट देते पेड़ को!
हमसे क्या चाहते है
थोड़ा जल और समुचित रखरखाव
क्या हम नहीं दे सकते
ये भी जीव है कृपया इनको जीने दो
समय पर खिलने दो व मुरझाने दो
जैसे हम मानव की जन्म
और मृत्यु निश्चित है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
कटिहार,बिहार

"शुक्रिया आपका"

खुदा की दी ये ज़िन्दगी
मानव को नायाब तौफा है
शुक्रिया खुदा...
प्रकृति की दी हुई
ये धरती की हरियाली
जीव को दिया जीवन उपहार है
शुक्रिया प्रकृति..
फूलों की दी हुई
मनभावन खुशबू
मानव को दिया हुआ
खुबसूरत सौगात है
शुक्रिया फूलों....
हिमालय पर्वत का दिया
ओट की दिवार
सबसे बड़ा सुरक्षा दीवार उपहार है
शुक्रिया हिमालय...
हिमश्रेणी का पिघल कर
नदी की जलधारा बनकर
प्यासे की प्यास बुझाना
जीवन अमृत उपहार है
शुक्रिया हिमश्रेणी...
सूर्य,चाँद व तारों का आसमाँ से दिया
धरती ग्रह पर प्रकाश
सृष्टि की उत्पत्ति का उपहार है
शुक्रिया सूर्य,चाँद व तारों...
किसानो का खेत खलिहान में
रात दिन जाग जाग कर
सबों के लिए अन्न उपजाना
अन्यपूर्णा का दिया उपहार है
शुक्रिया किसानों....
माँ का दिया बच्चों को जन्म
और लाड़ प्यार,दुलार
इस दुनिया का दिया
सबसे बड़ा उपहार है
शुक्रिया माँ...
बड़े बुजुर्गों का दिया हुआ
अनुजों को दिया
दीर्धायु आर्शिवाद उपहार है
शुक्रिया बड़े बुजुर्गो...
प्रेमी का अपनी प्रेमिका को
मोहब्बत में दिया प्यार
एक हसीन गिफ्ट है
किस्मत वालो को मिलता है
शुक्रिया मोहब्बत...
इन्सान की मेहनत से मिली
दो जून की रोटी
नेकी का तौफा है
शुक्रिया मेहनत....
इमानदारी से सदा पहन ओढ़ कर
ये कठिन जीवन जीना
सबसे अच्छा ईमान का उपहार
शुक्रिया इमानदारी...
मानव का अपना कर्म करते रहना
दूसरों की सदा सेवा करना
इन्सानियत का बड़ा गुण है
ये अनमोल उपहार है
शुक्रिया इन्सानियत....
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
कटिहार,बिहार

"वो बचपन का झूला"

वो बचपन का झूला
सखी सखा संग खूब खेला
पढ़ाई लिखाई सब भूल!
कभी आम की डाली तो
कभी अमरूद के पेड़ पर
लटके थे लंबे होने के लिए
तो कभी झूलते मस्ती के लिए!
मंडली के संग कर रहे थे
झूले संग हँसी ठिठोली
उसके बार बार मना करने पर
झुलाये जा रहे थे झूला को
वो गिरी सुखी जमीन पर
टूटी बाँजू की हड्डी पसली
डर से चेहरे का रंग हो गया पीला!
घर में चूहे की तरह दूबके
दाँट पड़ी तो फूट फूट रोये
बाद पापा के समझाने पर
दोस्त से मिलने को गए
माफ़ी मांगी अपनी भूल की
अब न झूलेंगे कभी झूला
अगले सावन में फिर लगाया
उसी आम के पेड़ पर झूला
जिस पर सखी की टूटी थी हड्डी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"आओ साझा संस्कृति साझा समाज बनायें"

कैसी संस्कृति कैसा समाज
जिसकी हम दूहाई देते
जो चिरकाल से निरन्तर
परिवर्तित होती चली आई!
फिर अब क्यों नहीं?
बंद दरवाजे नये विचार आने के लिए
खोल दो बंद खिड़कियाँ
शुद्ध हवा खाने के लिए
खोल दो ताज़गी में चित प्रसत्र होगा
बांसी की बदबू जाती रहेगी!
इन कुसंस्कारों की बेडियों को
तोड़ मढ़ोड़ कर रख दो
अपने नियम बनाओ
कोई भी पूर्ण नहीं ना मानव ना संस्कृति
पश्चिम की स्वच्छंदता व
पूर्व के संस्कारों का मेल कर
साझा संस्कृति बनाओ साझा समाज बनाओ
मानव नौतिकता के बोझ से
जीवंत मृत ना हो जाए
अतिभोगवाद से पलायन कर
इहलोक को चला जाए
मध्यम मार्ग को अपनाकर
आनंदवाद जीवन उदेश्य पाओ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

Monday 6 May 2019

"शब्द तो शब्द है"

शब्द तो शब्द है
अनायाश ही आ जाते है
किसी पुरानी याद से
आकर लिपट जाते है!
जैसे कोई प्रेमी हो
शादी के बाद भी आ जाता
अपना हक़ जताने
तुम मेरी हो आज भी
भले तन तुम्हारा
किसी और का हो!
हाड़ माँस के शरीर में
शिरा और धमनी होकर जाता रक्त
दिल से ही जाता है
वो दिल भले तुम्हारा हो
पर मैं उसमें रहता हूँ
तुम्हारे साँसे बन चलता हूँ!
शब्द भी मेरी साँसो है
जब तक ये देह रहेगा
शब्द शब्द से गुथ कर
कविता बनते रहेंगे और
ऐसे ही अनायाश आते रहेंगे!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"लधु मानव"

दुबक गया
सिकुड़ गया
टूटकर चिपक गया
आज का मानव
बंद कमरे में सिमट गया!
"हम"नहीं" मैं"बन गया
साथ साथ नहीं "ऐकला चलो रे"
बाहरी दुनिया नहीं अपनी दुनियाँ
घर का आँगन नहीं
अब चार दिवारी बन गई
बड़ा कुनबा नहीं
छोटा परिवार बन गया!
मैं खुश हूँ या
गमगीन मालूम नहीं
बस एक लधु मानव हूँ
जिंदा हूँ पर मुझमें जान नहीं!
वृक्ष की भाँति अपनी
शाखाओं से कट चुका हूँ
मैं जड़ बन चुका हूँ
जो धीरे धीरे सुखकर
मृत हो जाती है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"विराम थी तुम्हारा"

क्यों तुम आते नहीं
वापस रात लौट आती नहीं
बहुत प्यार के वो दिन
रिमझिम बारिश की फुहारों के!
गए पथिक लौट आए
उड़े परिदा आ गए
गईया चर आ गई
हवा चली पास आ गई
बिता मौसम फिर आ गया
सावन सुहाना आ गया
पेड़ों पे झड़े पत्ते पुन: आ गए
बादल में काली घटा छा गई
खेतों में बाली पक गई
चारों ओर हरियाली छा गई
कली फूल बन खिल गई
फिर तुम क्यों रास्ता भूल गए!
इतनी भी क्या व्यस्ता है
सारा काम तो हो जाते है
एक मिलने का काम छूट जाता
तुम्हारी नज़र में ये जरूरी नहीं
हो भी भला कैसे?
मैं पहले से नवेली नहीं रही
गुलाब की कली न रही
कसा हुआ वो बदन न रहा
एक लोथड़ा बन चुकी हूँ
ढल चुकी है यौवान मेरा!
तुम्हारे मुझसे पाने की
अब कोई इच्छा न रही
पर मेरी तुम संग रहने की
जिन्दगी को जीने की
असीम इच्छा शेष है
मैं तुमसे प्यार किया है
तुमने मेरे इस देह से!
देह तो देह है
मिट्टी का बना पुपला
जो एक न एक दिन टूट जाता है
या पुराना हो जाता है
मैं भी पुरानी हो गई हूँ
तुम आज भी नये हो
पुरूष कभी ढ़लता नहीं
हमेशा जवान रहता है
और जवाँ देह पाना चाहता!
मैं तुम्हारा पूर्णविराम नहीं
केवल विराम थी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"एक बार जी तो लूँ"

मौत तो आनी है
एक बार जी तो लूँ
बचपन खेलने में बीता
जवानी पढ़ने में
आधा उम्र में नौकरी मिली
बचा उम्र कमा कर
बीबी बच्चों को खिलाने में
बुढ़ापा पश्ताने में!
मैं अपनी जिन्दगी जिया कब
मैं अपनी मर्जी किया कब
जब किसी से प्यार किया
प्यार में धोखा खाया
पढ़ाई की फिर भी
बार बार असफल रहा
किस्मत को कोसता रहा!
ये भी कोई जिन्दगी थी
जो कुछ पाने में अपना सब खो दिया
सोचता रहा पर कुछ भी न कर सका!
जीना चाहता था
उड़ान भरना चाहता था
जेब में रूपैये नहीं थे
प्यार करना चाहता था
पर एक प्रमिका पास नहीं थी
तो कभी वक्त पास नहीं
बहुत पढ़ना है अभी!
एक बार जी तो लूँ
जी भर खा लूँ अपने मन की
जी भर पी लूँ तेरे लबों की लाली
जी भर कर लूँ चाहे उटपटांग ही सही
यही तो जिन्दगी है
फिर मौत तो आनी है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

Saturday 4 May 2019

"ख्वाबों का क्या कसूर"

वो ख़्वाब ही क्या
जो अधुरे ना रहे
अगर पूरी हो जाती तो
इन्हें ख़्वाहिशों का नाम ना मिलता!
ये तो उस सपने जैसा है
जिसे हम जागती आँखों से
दिल में संजोते है और टूटने पर
मरे हुए किसी अपने जैसे
दहाड़े मारके रोते बिलखते है!
पर हमने कभी यह सोचा है
हम इन्हें क्यों देखते है
क्योंकि जो हम पा नहीं सकते
उनको ख़्वाबो के सहारे हासिल करते है!
इसलिए कसूर ख़्वाबों का नहीं
उन आँखों का है जो इन्हें देखते है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"नजरों से बहुत दूर हो तुम"

दूर बहुत दूर हो तुम
मेरी नजरें तुम तक नहीं जा पाती
ये मेरे नेत्रों की सीमा है या मेरे मन की
जो तुम तलक नहीं जा पाती
काश् में पक्षी होती
अपने परों को फड़फड़ाती हुई
तुम तलक पहुँच जाती!
काश् मैं पवन होती
बहती हवा के झौंके सा उड़ाकर आ जाती!
काश् मैं नदी होती
बहती जलधारा मुझे बहाकर ले जाती!
पर ना मैं पक्षी हूँ ना ही पवन हूँ
ना ही नदी हूँ मैं एक तड़पती आत्मा हूँ
जो अपने प्रियतम के पास जाना तो चाहती हूँ
पर जा नहीं पाती है
मैं लोक लाज की मर्यादा,
सरहदों को तो तोड़ जाती
पर क्या करूँ तुम जो नहीं चाहते
कि मैं अमर्यादा हो,आऊँ तुम्हारे पास!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"मैं पक्षी बनना चाहती हूँ"

मैं पक्षी बनना चाहती हूँ
ऊपर गगन को छूना चाहती हूँ
उड़ते बादलों को चूमना चाहता हूँ
ऊँचे ऊँचे पेड़ो पर बैठना चाहती हूँ
नीचे जमीन पर दाना चुगना चाहती हूँ
मैं पक्षी बनना चाहती हूँ!
उन्मूक्त बन दूर तलक उड़ना चाहती हूँ
सरहदों की सीमा लाँघना चाहती हूँ
मजहब,जाति पाति व समाज की
हर दिवार को तोड़ना चाहती हूँ
मैं पक्षी बनना चाहती हूँ!
मैं पवन की तरह बहना चाहती हूँ
रेत की तरह उड़ना चाहती हूँ
नदी की तरह तँट तोड़ना चाहती हूँ
झील बन अथाह जल समेटना चाहती हूँ
मिट्टी की तरह नरम बनना चाहती हूँ
मैं पक्षी बनना चाहती हूँ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
कटिहार,बिहार
मौलिक रचना

"भिखारी"

फटा पुराना लत्ता पहने
चेहरे पे झुरियाँ छुपाये
आगे को मुँह लटकाये
हाथ में कटोरा पकड़े
काँख में पोटरी दबाये
माथे पर बदकिस्मत की लकीर लिखाये
उल्ट पुल्टे टूटा फूटा चप्पल पहने
बेहताशा सड़क पर तो
कभी गली कूचों में मारे मारे फिरते
दिखने में साधु लगता पर है भिखारी....!
उपदेश नहीं आशिर्वाद देता
बदले में बस थोड़ा भीख
दरवाजे दरवाजे शोर करता
यही बार बार कहता
"दे दांता के नाम तुझको अल्ला रखे"
लोग कान में जैसे रूई रख लेते
रोज बेटा बेटी की बिमारी का बहाना सुन
तो कभी बेटी की शादी का खर्चा मांगते
तो कभी अपने की मौत का मातम मनाते
ऐसे हरकतों से लोग ऊकता चुके थे!
क्योंकि अच्छे भले लोग
जिसको कमी नहीं किसी चीज की
वो भी पैसे के लालच में काम से जी हैं चुराते
वही मार देते है असली भिखारी के पेट पर लात!
धर्म कहता"पाप कटाओ गंगा नहाओ"
दान पुण्य साधु,भिखारी को करो
सरकार कहती "भीख देना पाप है"
निकम्मों लोगों को इससे बढ़ावा मिलता
इससे बेरोजगारी है बढ़ती
जनसंख्या भी है बढ़ती
विकास कार्य में धन खर्च बढ़ता
अर्थव्यवस्था पड़ती सुस्त
दुनिया में भारत की छवि होती धूमिल!
देश में घोटालों की फेरस्ती है लम्बी
मंत्रियों के स्विस बैंक में खाते भरे
कालाबाजारी करनेवालों के घर भरे
बाहर भूखे नंगे दाने को तरसते
बेइमानों के रजाई में नोट भरे
गरीबों के बिस्तर में है रूई कम
फिर भी सरकार को क्यों दिखता कम?
विकास के नाम पर पैसे आते
मिल बाँटकर प्रशासक भतीजे
और नेता मामा खा जाते!
देना है तो कोई रोजगार हमें भी दे दो
जैसे भले चंगों और दिव्यागों को मिलता
फिर ना मांगेगे हम भिखारी
कभी भीख आपसे हो माई बाप!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"

"मनरेगा का मजदूर"

हाँ, मैं हूँ मनरेगा का मजदूर
गरीबी है कोसों मझसे दूर
सरकारी नौकरों जैसा तन्खा तो नहीं
पर बेरोगारी भत्ता पाता हूँ
मेरा जन्म गाँधीजी जंयती से हुआ
नरेगा से मेरा नाम परिवर्तन
मनरेगा शहरों जैसा हो गया है!
चौदह वर्ष का बालक हूँ
अभी वामदल के समर्थन से
संप्रग सरकार द्वारा लाया गया हूँ
कल्याणकारी योजनाओं की देन हूँ
मेरा वहन केन्द्र और राज्य सरकारों
द्वारा किया जाता है!
तीस दिनों की न्यूतम मजदूरी
प्रति परिवार सौ दिनों की गारंटी
ग्रामीण परिवार के व्यस्क सदस्य को
नाम व पत्ते के जांच के बाद
पंचायत द्वारा दिया जाता हूँ
मुझे देने के लिए पुरूष स्त्री में
कागजी भेद नहीं किया जाता है
पर कभी न मिलता समान वेतन!
ये अन्य गरीबी योजनाओं की तरह
पूरी तरह तो सफल नहीं परन्तु
आंशिक रूप फे सफल है
राजस्थान बना इसका अपवाद है
मध्यप्रदेश में मानकीकृत हो गई है
स्थानीय परामर्श न के बराबर है
काम में लगे वास्तविक संख्या से अधिक
झूठे जाॅब कार्ड का दावा किया जाता
जिससे ज्यादा फंड प्राप्त हो सके
स्थानीय अधिकारियों द्वारा राशि गबनकर
जाॅब कार्ड बनाने के नाम पर
रिश्वत भी मजदूरों से ली जाती!
मनरेगा के नाम पर ये कैसी
गरीबी मिटाई जा रही है
जहाँ गाँव में मजदूरों में कई वर्ग हो गए है
ये कैसा समाजवाद है जहाँ
हर पल खोखला होता
समाजवाद का यह विचार है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"दादी तम कहाँ गई"

दादी ओ दादी
तुम कहाँ गई
मुझ बिन बताये
मुझे तो आज भी लगता है
तुम गाँव गई हो चाचा के पास
खेत देखने कभी गेहूँ कटौनी के लिए
तो कभी धान रोपनी के लिए!
यही सोच मन ही मन धूलती हूँ
अब आओगी पर तुम आती नहीं
सपनों में तुमसे वैसे ही बात करती हूँ
जैसे पहले किया करती थी!
कहते गुजरे लोग सपनों में आते है
और साथ जाने को कहते है तो नहीं जाना चाहिए
माँ बार बार यही कहती है
सोने से पहले हाथ मुँह घोकर सोना चाहिए
नींद अच्छी आएगी साथ बुरे सपने भी नहीं आएगे!
पर तुम तो मेरे सपने में आती हो
पर साथ नहीं ले जाती
मुझे मैं भी तुम्हारी दुनिया देखना चाहती हूँ
जहाँ जाने के बाद लोग कभी नहीं आते!
तुम कान की बहुत पतली थी
जल्दी गुस्सा हो जाती थी
पापा से शिकायत करने पर
फिर क्या था बबाल मचा दिया था
बिट्टू ने कान के परदे फाड़ दिये
पर मैंने तो सिर्फ ऊपरी भाग को खींचा था!
मैं और भाई अनंत शहर क्या पढ़ने को गए
फिर तुमसे ना मिल सके!
परीक्षा थी पापा ने कुछ ना बताया
जब बाद घर आई तो पता चला!
मेरे बड़े अरमान थे तुम्हें बाहरी दुनियाँ ले जाऊँ आधुनिक बनाऊँ सोने के गहने पहनाऊँ
और ना जाने क्या क्या
जो पापा ना कर सके तुम्हारे लिए
वो अपना और अपने परिवार की जरूरतों में
माँ के लिए अपनी जिम्मेदारियों को भूल गए!
पर मेरी स्मृतियों में तुम्हारी याद
तुमको आज भी जिन्दा रखे हुए है
शायद हमेशा रहेगी....!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"ना तुम ना तुम्हारी आभास आकृतियाँ"

यहाँ भी वहाँ भी जहाँ भी देखती हूँ
वहाँ तुम ही तुम नजर आते हो
ये मेरी नजरों का धोखा है
या मेरे मन का भ्रम!
उड़ते बादलों में
चलती हवाओं में
बहती नदियों में
ललहराते खेतों में
खिलते फूलों में
उड़ते पक्षियों में
तुम नजर आते हो!
मेरे आस पास गुजरते लोगों में
रास्ते पल चलते मुसाफिरों में
घर आते मेहमानों में
तुम्हारा चाहरे ढूढ़ती हूँ
पर कहीं भी तुम पहचान में नहीं आते
मैं इनके पीछे बच्चों जैसी
तितली समझकर दौड़ती हूँ
और औंधे मुँह गिर जाती हूँ
मैं तुम्हारी आभास आकॅतियों को
कैद करना चाहती हूँ
कुछ भी तो नहीं मेरे पास
ना तुम ना तुम्हारी आभास आकृतियाँ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"राजधानी एक्सप्रेस"

चलती है दौड़ती है
पटरी को तोड़ती है
सबको पीछे छोड़ती
बस आगे निकलती जाती
ऐसी है राजधानी ट्रेन
सभी ट्रेनों की गौरव है!
पर एक दिन इंजन रहित ट्रेन
टी एट्टीन राजधानी को भी
पीछे छोड़ ही देगी जो सभी
सुविधाओं से लैश है जैसे आधुनिक हथियार!
देश की राजधानी दिल्ली
सभी राज्यों की जनता का
प्रतिनिधित्व करती है
देश की आन- बान है
भारतवासी आशाई नज़रों से
विधि व योजनाएं का
सदा ही इंतजार रहता है!
महानगर की दुनिया
रंगीन सपना इस के पीछे भागते आते लोग
गाँव से शहर पलायन करते
अपनों और अपना घर छोड़
अपनी भाषा और बोली छोड़
संस्कृति और संस्कार छोड़
पाश्चात के सियारी रंगो में खुद को रंखकर
मोर से रातों को नंगा नाचते लोग
शबाब औरतों का पालते लोग!
बड़ी बड़ी बिल्डिंग
ऊँची दिवारे चौड़ी मीनारे
ललहलाते बाग
दमकती लाइटें की बल्वें
सरपट दैड़ती सड़कों पर
आदमियों पर गाड़ियाँ
नियम पे चलते यातायात
मँहगी शिक्षा और स्वास्थ!
कचरे के ढोर में लिपटा
कुड़ा बिनता नन्हा बच्चपन
झुग्गी झोपड़ी सनता जीवन
स्वच्छ पानी बिन जीता
स्वच्छ वायु को तरस्ता
शिक्षा से वंचित रहता
जानवरों सा मानव रहता!
राजधानी ट्रेन भी  बस नाम की रह गई है
मँहगा सफर है फिर भी धटिया भोजन
बनी कुव्यवास्था है दिखती
राजधानी नाम कि बस
सभी को न समाँ पाती
देती सबको सपने उनको पर
आधे अधुरे छोड़ जाती !
जरूरी है राजधानी जैसी सुविधाएं
सभी राज्यों की राजधानियों में मिले
और गाँव से पलायनवाद रूके!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना