Friday 27 September 2019

"ग़ज़ल"

भला दर बदर क्यूँ मैं भटकूं जहाँ में
तेरे दिल में रहने को जब घर मिला है!
न जाने ये कैसा मुकद्दर मिला है
है लम्बा सफ़र और शायर मिला है!
छुपाने से ग़म फ़ायदा अब नहीं
कुछ तेरी आँख में इक समन्दर मिला है!
मैं जितनी दफ़ा दिल लगाई हूँ यारो
मुहब्बत में धोखा ही अक्सर मिला है!
इकट्ठे हुए मेरे भाई ये जो
मेरी माँ के कमरे में जेबर मिला है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

Wednesday 25 September 2019

"मन की उदासी"

ये मन की उदासी है
या तेरे न होने का खाली अहसास
जो मेरे पुरे औरत होने पर भी
मुझे पुरा न बनाता है!
अंदर ही अंदर कचौटता है
अजान सा भविष्य का भय
अकेले पुरा जीवन काटना होगा
या तुम आकर पूरा करोंगे
मेरे इस मौन व्रत को तोडोंगे!
कब तक तकिया और बिस्तर से
मैं सिमट कर सोऊँगी
कब तक रूमाल से अपने
दर्द को सबसे छुपाऊँगी
कब बाहरी लोगों से दिल बहलाऊँगी
माँ तो समझती है मेरे दर्द
पर वो भी विवश है!
मैंने कसम ही ऐसी खाई है
बस तुमको पाने की और
तुम मेरे कहाँ होने वाले
और कोई दुजा अब दिल को भाता नहीं
शायद कोई तुम जैसा नहीं
जो मुझे इतना प्यार दे सके!
सच कहूँ तो मैं अब किसी को
तुम जैसा प्यार नहीं कर सकती
तुम्हार याद में पागली होती होती रह गई
कवयित्री खुद को बना डाला
अब फिर से किसी से प्यार किया तो
पागल ही हो जाऊँगी और
मुझे पागल नहीं होना है
पागलों को दुनिया भूल जाती है
मैं चाहती हूँ सब मुझे याद रखें!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

"औरत क्या है"

औरत चादर सी बिछती
तौलिया सी समटती
दिन रात की कहानी है!
झाड़ू सी बुहरती
रात मन से गंदा होती
सुबह तन से साफ होती
बरतन सी मजती
सिलबट्टे पर घिसती
रसोई में रगड़ती
रोज रोज की रवानी है!
आटे सी सनती
घुन सी पीसती
बच्चा को जनती
सबकी सेवा करती
घर की नौकरानी है!
पति की अद्धागंनी
जीवन की संगीनी
सुख दुख की साथी
कहलाती महारानी है!
कन्या देवी स्वरूपा होती
औरत अन्यपूर्णा होती
घर की लक्ष्मी होती
ममता की संसार होती
परिवार की संकटहरनी है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

"आदमी नहीं लड़का वर चाहिए"

आदमी नहीं लड़का वर चाहिए
बापू ऐसो वर ढूढ़ कर लाओ
जब सोलह की बाली उम्र थी
तो तीस पैंतीस का आदमी मिलता
तोंद कुछ बाहर निकली सी
बाल सिर से गायब से
चेहरे पर उम्र साफ झलकता
बातों से परिपक्क सा लगता!
माँ ये तो आदमी है लड़का नहीं
माँ हाथ चमका चमका कहती
मर्दो की भी कोई उम्र देखी जाती है
पिता कहते सुन्दरता से क्या लेना देना है
आदमी है कमा कर खिला ही देगा!
ना,ना मैंने तो सपनों में
राजकुमार को देखा था
जो नौजवान सा था
लंबा चौड़ा सीना
सुन्दर सजीला था
मेरी ही उम्र से मिलता जुलता था
दोस्त जैसा लगता था वो!
माँ -बापू मुझे आदमी जितने बड़े से
शादी ब्याह करके घर नहीं बसाना है
अभी मुझे आगे पढ़ना लिखना है
मैं अभी शादी नहीं करूँगी !
समय वक्त के साथ निकलता गया
मैं पैंतीस की हो आई
फिर लड़का मिलना हुआ मुश्किल हुआ
फिर से ढूढ़ने पर आदमी मिलते!
लड़के तो लड़की से बढ़े ही होगी
लड़की लड़के से चाहे जितनी छोटी
कब तक अनमेल विवाह होते रहेंगे
वो भी केवल एक तरफा ही!
लड़की लड़के से बढ़ी हुई तो
क्या शादी जल्द टूट जाएगा
बच्चे फिर पैदा न होगे संबंध बनाकर आखिर!
ऐसा क्या हो जाएगा
जो लोग पुरातन रीति रिवाज को ढ़ोते है
कानून भी बालिग लड़के के विवाह को इक्कीस
और लड़की के अठारह बना है
फिर जब संबंध बनाने की सीमा नहीं बनी
फिर विवाह में ये सीमा क्यों?
केवल लड़कियों के छोटी होने की!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

Sunday 22 September 2019

"तन की सौगंध"

तुम्हारे अन्दर से आती
भिन्नी भिन्नी सी खुशबू
कमरे में छा जाती जो
अब तक साँसों में है!
जब भी तुम आते हो
सीधे साधे से लगते हो
पर तुम्हारे तन से कभी
मिट्टी की सुगंध आती
पवित्र अगरबत्ती की
कभी शुद्धत धी की तो
कभी आरती की
मन को शीतलता और
तन को व्याकुलता देती
ये खुशबू कौन सी है!
आज तक न जान सकी
तुम दूर इतनी दूर चले गए
कभी फिर वापस न लौटने को
पर मैं उसी तन की खुशबू में
मन का चैन आज भी पाती हूँ!
कभी कभी तो लगता है
वो मेरी आत्मा में समां चुकी है
वो खुशबू नहीं मिलेगी तो
मेरी साँस रूक जाएगी
मैं भी अगरबत्ती और
फूलों की बहुत शौकीन हो गई हूँ
बदल बदल प्रयोग करती हूँ
वही खुशबू फिर से मिल जाए
और मेरे देवता के अराधना में
दर्शन पाने को व्याकुल हो जाती!
पर वो तो तुम्हारे देह की गंध थी
जिसमें आकर्षण की दिव्य शक्ति थी
क्या तुम कृष्णा थे जिसके लिए
मुझे राधा बनाकर छोड़ गए
बिन ब्याही तुम्हारी प्रेयसी
विरह की ज्वाला में तड़पने के लिए
मैं तुम्हारी उसी गंध की आगोश में
सदा के लिए सोना चाहती हूँ
आओ मुझे अपनी बाँहों में भर लो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

Saturday 14 September 2019

"वो न कभी हिम्मत हारा"

"वो न कभी हिम्मत हारा"
चलते चलते गाड़ी स्टेशन पर रूकने को हुई
वो जल्दबाज़ी में सीढ़ियों पर गिर पड़ा
अपना सुझबुद्ध खो पड़ा
कुछ देर वही पड़ा रहा
लोग का तमाशा बन गया
देख कर लोग चल जाते
पुलिस करवाई के बाद डाॅक्टर ने उसे देखा
कहा बहुत ख़ून बह चुका है
एक टांग काटनी होगी!
बैसाखी अब उसका सहारा है
कुछ समय उसके साथ काटा
पर सारा जिन्दगी के पाँव चाहिए
फिर एम.पी के चरण पकड़े
कुछ कमीशन ले देकर
नकली पाँव राजकुमार को मिले
वो सचमुच का राजकुमार बन गया!
वो नौकरी की तैयारी में छोटे गाँव से
दिल्ली महानगर आया
यूपीएससी की कीचिंग में मेहनत की
फिर प्रारंम्भिक परीक्षा पास की
कई साल पी.टी मेन्स का खेल हुआ
आर्थिक तंगी में कभी दोस्तीं से
तो कभी परिवार का सहारा मिला
कभी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया
जेआरएफ की स्काॅलरशिप से
उसने आगे की पढ़ाई पीएचडी की
फिर भी सरकारी नौकरी न पा सका
माँ बाप का श्रवण कुमार बनकर
हर वक्त सहायता को तत्पर रहता
पूरे परिवार को लेकर वो चलता है!
मुहब्बत भी की पर नौकरी न मिलने
और परिवार की मर्जी न होने से
विवाह सपना अधुरा ही रह गया
जिन्दगी के लिए एक जीवनसंगीनी
जल्द ही उससे मिले जाए और
नौकर उसका सहारा बने बैसाखी नहीं!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

"सफेद लिबाज"

"सफेद लिबाज"
अब तो हरे पीले लाल नीले रंग
बदरंग से हो गए है
मुझे तो सफेद लिबाज से
तन और मन दोनों को ढकना है!
सुहाग की निशानी तो
सुहाग की चिता पर जल जाती है
पहले में भी सती हो जाती थी
अब मेरे अरमान हो जाते है!
वृन्दावन के वन में कभी राधा
और कृष्ण रासलीला रचाते थे
आज वही गलियाँ मेरे लिए विराना बनी हुई है
सोलह श्रृंगार तो दूर
प्रेम के सारे रस निरस हो गए
एक कठोरी में सुबह से
शाम जिन्दगी बीत जाती
इसका आभास जाता रहता!
वृन्दावन नाम में ही वन है
फिर भी मेरे जलाने को लकड़ियाँ कम पड़ती
सीधे नदी में मेरी लाश फेंक दी जाती
चील कौओं को खाने के लिए
अब इनकी भी संख्या कम हो रही
लाश नदी में पड़ी पड़ी सड़ती रही
नदी का पानी भी गंदा हो जाता
पर परवाह किसको है?
नदी तो गंदी करने के लिए ही होती
लाश फेंको या कचरा या फैक्टी से
निकला हुआ अवशिष्ट हो
सरकारी नदी सफाई परियोजना
करोड़ों अरबों की चलवाएगी
फिर भी नदी पीने लायक
कभी नहीं बन पाएगी!
कब तक ऐसा मेरे साथ और
नदी के साथ होता रहेगा
मैं औरत हूँ नदी भी स्त्रीलिंग है
इसलिए दोनो के साथ समान
व्यवहार किया जा रहा है
यदि दोनों पुलिंग होते तो क्या
ये व्यवहार हमारे साथ होता?
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

"मैं हिन्दी"

" मैं हिन्दी"
मैं हिन्दी एक भाषा हूँ
एक संस्कृति हूँ
एक सभ्यता हूँ एक धर्म हूँ!
मैं हिन्दी वर्षो से धूल फांकती
घर का पुराना समान हूँ
अनेकों अनेकों भाषाओं के नीचे दबी रहती हूँ
मेरे भगीनी उर्दू भी मुझे छोड़ चली है
मायका संस्कृत भी पीछे छूट चला
सखी भाषाएं से कट्टी हो चली
अँग्रेजी शौतन बनके
जब मेरे सीने पर चढ़ बैठी !
अपने ही वतन मैं रिफ्यूजी हो चली
अंग्रेज कबके मेरे वतन छोड़ चले
पर आज भी महारानी विक्टोरिया की
शान ओ शौकत चलती है
जब अँग्रेजी भाषा में
भारत की शासनसत्ता चलती है!
मेरी पड़ी धूल झाड़ कर
गंगा जल छिड़कर मुझे शुद्ध करो
वेद मंत्र को पढ़कर मेरा श्रीगणेश करो
प्रथम भाषा का दर्जा और सम्मान दो
तभी आर्यावर्त का मान बढ़ेगा
भारतीयों का शान बढ़ेगा
विश्व में भारत महान बनेगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णीयाँ,बिहार
मौलिक रचना©