Friday 23 February 2018
"मरघट"
Saturday 10 February 2018
"श्रापित हूँ मैं"
"पीड़ा"
ये पीड़ा वो पीड़ा जाने कितनी पिड़ाओं में व्यक्तित्व दबा है! देह पीड़ा में रोगों की छाया से शरीर कुंद हुआ मन पीड़ा में ह्रदय धात हुआ अंर्तमन अंत:पीड़ा में अवचेतन शून्य हुआ समाजिक पीड़ा में मानंसिक कुठा पैदा हुई सबके सब पीड़ा में है! और ये मिलती कहाँ से खुद मुझसे मेरे अपनों से समाज से परिवार से! चक्रिय रूप में ये पृथ्वी जैसी घूमती है जीवन में पीड़ा का रूप नित बदलता रहता अन्तरिक पीड़ा बाह्र पीड़ा बन जाती बाह्र पीड़ा अन्तरिक पीड़ा रूप ले लेती व्यक्ति को जब पूर्वाअभास होता जीवन का दिन कुछ शेष रहते ! क्या बौद्ध का कहा ही पूर्ण सत्य है जीवन दु:खों से भरा पड़ा है सुख का कहीं नामोन्शान नहीं मोक्ष ही अंत है पुन:दु:ख सेबचनेका तो ये जीवन का एक पक्षीय सत्य है! मैं मानती हूँ जीवन में संधर्ष और बाधाएं है पर दु:ख में रहते ही सुखों की तलाश जीवन उदेश्य है तभी इन्सान को आनंदवाद की प्राप्ती होगी आओ इस आनंदवाद को ढूँढे खुद में! कुमारी अर्चना १५/३/१८ मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार
Friday 9 February 2018
"क्या कहती है स्त्री पीठ"
उसकी चौड़ी
गैरी चिट्टी
आगे से कंसे नितंब
पीठ पर मैं कामपूर्ति लिखूँगा
और क्या लिखूँ मैं
चरित्रहीन
कुलटा
डायन
वैश्या
और क्या है वो
दैवी
माता
प्रिया
पत्नी
पुत्री
बहु
पोती
हा हा हा
वो देह है केवल
मुझे जिस रूप में मिलें!
हाँ संबंधों की परिपाटी में
मेरी सीमा है कुछ स्त्रियों पर!
पर मैं प्रतिबद्ध नहीं हूँ
जो अपनी खींची लक्ष्मण रेखा
ना तोड़ सकूँ
ना ही रावण हूँ
परस्त्री को शोभा बना केवल रखूँगा
उसके स्त्रीत्व की रक्षक बनूँ
मैं आधुनिक युग का
कलयुगी मानव हूँ
वस्तु को धन से
धन को वस्तु में
तोल मोल करता हूँ
भावनाओं का कोई मोल नहीं मेरे लिए
सब बराबर है
स्त्री और वस्तु तथाअस्तु!
हे पुरूष!
मुझे कामपूर्ति साधन समझ
कभी मेरी पीठ पर तुमने
रामायण
महाभारत
गीता
मनुवाद को लिख छोड़ दिया
क्या मेरी पीठ युद्धभूमि है
या जुता हुआ खेत है
जब जिसने चाहा
जब चाहा
जैसा चाहा
कोई भी बीज बो दिया
बाद खराब फसल होने पर
स्त्री को जमीन समझ कोसा
और मुझे अपनी पीठ दिखाई!
तुम अपनी पीठ मुझे दे दो
मैं कुछ लिखना चाहती हूँ
वासना का पूजारी
छलिया
कमीना
लालची
मतलबी ना कहूँगी तुम्हें कभी!
प्यारा
स्नेही
सच्चा
आर्दशवादी
नैतिकतावादी
कर्त्तव्यनिष्ठ
लिख तुम्हें महापुरूष बनाऊँगी
एक बार पुन: तुम फिर से सोचोगें
मेरे पीठ पर लिखें को मिटाने को!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
९/२/१८
Tuesday 6 February 2018
"मध्यमवर्ग"
"तुम मेरे दिल में हो"
तुम मेरे दिल में हो मेरा दिल तुम्हारे हाथों में है जैसे कोई आईना ! मेरी जान तेरी कदमों में है, जैसे कि घूल ! मैं तुम्हारे बाँहों में कैद हूँ जैसे कि बंदनी ! मेरी धड़कती साँसे कहती है, तुम मेरे दिल में हो! कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार, मौलिक रचना, २१/४/१८
"बाती का दीपक हूँ"
"शहादत"
"मेरी अंतिम इच्छा"
"कलिक अवतार"
"मेंहदी हूँ मैं"
"वैश्या हूँ तो क्या"
"तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती"
वैसे तो मुझे उत्सवों में रंगोली जैसा
नाजुक नाजुक हाथों से बनाया जाता!
पर मैं तेरे सख्त़ हाथों से बनना चाहती
चावल की तरह तेरे प्यार में मिटकर
तेरे जीवन में आनंदरस भरना चाहती!
तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती
मेहदीं सी घिसकर तेरे हाथों पर
प्रेमरंग भर देना चाहती हूँ!
तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती
तेरे आँगन की तुलसी सी बनकर
बुरी हवाओं से तुझे बचाना चाहती!
तेरे चौखट पर काला टिका सा बनकर
तेरे हर बलाओं को अपने उपर लेना चाहती! तेरे कोहबर घर की दीवारों पर सजकर
तुझपर समर्पण और अर्पण होना चाहती!
तेरे लिए मैं अल्पना बनना चाहती
फूलों की खुशबू सी बिखर जाना चाहती! कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१६/४/१८
"मैं कृष्ण बोल रहा हूँ"
मैं कृष्ण बोल रहा हूूँ
मैं जल्द फिर से आ रहा हूँ
कलयुग में अपनी माया रचने
अपनी मनमोहक सी छवि लिए
इस छलिया रूपी संसार को
फिर से छलने!
अपनी बाँसूरी को बजाकर
राधा और गोपियों को फिर रिझाने
मीरा का मोहन बनने
मैं कृष्ण बोल रहा हूँ
मैं जल्द फिर से आ रहा हूँ!
जन्म तो मेरा मथुरा में
देवकी के गर्भ से हुआ
पलने में मैया यशोदा ने झूलाया
लालन पालन गऊँअन के बीच
वृदावन के वन में हुआ
खेल खेला सखा सुदमा संग
रास रचाओं गोपिओं और राधा संग
गलियों में कई मयावी राक्षसों को वधकर
उन्हें श्राप से मुक्त किया
कंश के पाप से त्रासित् जनता को
बेडियों से मुक्त कराया
राजशासन का मैंने भोग किया
ना राधा ना ही मीरा का हो सका
रूकमणि संग संसारिक संबंध निभाया!
फिर से कंश रूपी मानव का राज
पृथ्वी ग्रह पे हो रहा है
जिस मानव को प्रखर बृद्धि,
बल व शक्ति दी अन्य जीव,
जन्तुओं की सुरक्षा और आश्रय दें
वही दानव बनकर मानवता का
विनाश कर रहा
दीन-बंधु,दु:खीयों और शिशुओं व
नारी पर नित्य अत्याचार किया
दसवाँ कलिक अवतार लेकर
मैं मानव के अंदर बसे इसी श्रेष्ठा के
दंभ व अहंकार का मरदन करने
जैसे कालिया नाग का किया था
नर या नारी किसी भी रूप में
धरा पे कभी भी प्रकट हो सकता हूँ!
शिव की जटा की पूरी गंगा लेकर
विष्णु का सुदर्शन चक्र लेकर
ब्राह्मा का ब्राह्मास्त्र लेकर
गणेश का ज्ञान व बुद्धि लेकर
इन्द्र का बज्र लेकर
त्रिदेवियों की शक्ति लेकर आ रहा
मैं कृष्ण बोल रहा हूँ
मैं फिर से आ रहा हूँ!
कमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
६/४/१८
"गुदगुदी"
"गुदगुदी" क्या ये वही चुम्बन था जो तुमने मुझे बाँहों में भरके दिया था उसकी गर्माहट आज भी मेरी साँसों में है.. ., और मेरी चलती धड़कनों को रोक देती कुछ पल के लिए या कोई और था! चुपके से तुमने मेरे माथे पर अपनी एक प्रेम निशानी दी थी प्यार की झपकी थी वो! मुझमें आज भी रोमांस की गुदगुदी का एहसास भरती है तुमसे वही चुम्बन लेने की पर तुम पास नहीं! हो सके तो तुम वापस आओ फिर से वही रात लाओ! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार मौलिक रचना
६/४/१८
"राष्ट्रीय भवन के सुन्दर फूल"
जीवन का एक सपना है
जो बीच में अधुरा रह गया
राष्ट्रपति भवन के फूल चुराने का
फूलों की बगीया से एक दिल चुराने का!
पहले एक बार कोशिश की थी
नकाम़याब रही भाई ने बीच टोक दिया
अगर तोड़ा यहाँ फूल तो
तुमको सजा होगी गंभीर
बेज्जती सो अलग से
मैं भी नहीं बचाउँगा!
सजा का ना कोई डर था
पर बेज्जतीका असर जबर्दस्त था
बोधगया में तो संजीवनी बुटी का
फूल चुराया था चुपके से
हाथ के पीछे से छुपाया था
वो भी टहनियों सहित!
बच्चपन में किसी के घर के
फूलों को ना छोड़ती थी
उचित सुअवसर की तांक में हूँ
तोडँगी एक दिन
मुझे फूल चोरनी से
ज्यादा दिन बच ना सकेगें
राष्ट्रपति भवन के फूल!
अगर पकड़ी गई तो
अब बहाना भी है कवयित्री हूँ
कविता कर रही थी नाजुक फूल थे
हाथ में आ गए।
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/४/१८
"काश् तुम बादलों में होते"
बादल उड़ते है
मैं भी उड़ना चाहती हूँ
दुधिया दुधिया से रंगे
कपास की तरह!
बच्चपन में रोज सोचा करती थी
मैं कब उडूँगी!
कभी पास आते तो कभी दूर
जैसे आगे बढ़ती ये भी बढ़ते
जैसे दौड़ती ये भी दौड़ते
जैसे रूकती ये भी रूकते
जैसे हँसती ये भी हँसते
जैसे रोती ये भी रोते
ताज्जूब नहीं होता
अपनी खुली आँखो पे
ये कैसा जादू है कभी
पलके बंद कर सोचती
आखिर ऐसा कैसे होता है
कभी पकड़ नहीं पाती
इनको जैसे तुम्हें!
कभी पापा तो कभी दोस्त
तो कभी पेड़ तो कभी पक्षी
तो कभी भगवान की
आकृतियाँ बादल में उभर आती
जो भी प्यारे लगते मुझे
सबके सब नज़र आते
पर तुम क्यों नहीं दिखते
उड़ते बादलों में!
मैं रोज रोज ढूढ़ती हूँ
तुमको बादलों के टूकड़ों टूकड़ों को
साथ जोड़ कर पर तुम्हारी
छवि नहीं बुन पाती!
क्या अब ये पराये हो गए
मेरे या तुम बिसार चुके
मुझे कोई पुराना गीत समझकर
जो ओंठों पे भूले से भी
गुनगुनाया नहीं जाता!
पर मुझे सब याद है
बादलों में तुम्हारी वही
मोहक छवि दिख जाती
तो मेरे साँसों की उम्र थोड़ी
और लंबी हो जाती
तुम दिखोगें ना वादा करों!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/४/१८