Saturday 20 January 2018

"रूह सफ़र कर चली"

जिंदगी के सफ़र में
शरीर के साथ साथ
एक दिन रूह़ सफ़र कर चलेगी
और हम भी!
सफ़र कभी सपनों में
कभी रेल पर छुक छुक कर
तो कभी बस की भीड़ में
कभी हवाई जहाज में उड़कर
तो कभी पानी जहाज में तैर
कर कभी बाइक से बैठकर
तो कभी पैद चलकर
जाने किंन किंन तरीकों से!
मालूम नहीं गंतव्य तक पहुँचने के लिए
हम सब क्या क्या नहीं करते!
फिर रूह भी सफ़र के लिए
शरीर के मृत्यु का इंतजार करती
कभी शरीर नाश्वर है तो
आत्मा शरीर बदलती है
जो आया है वो जाएगा
जैसी बातों संकेतिकता देती!
परमात्मा से मिलन के लिए
रूह स्वं वाहन बन जाती
जाना होगा एक दिन सबको
शरीर के साथ रूह के सफ़र में!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२०/१/१८

Monday 8 January 2018

"दिल"

क्यों रोया दिल
आँसू में!
क्यों जागा दिल
ख्वाबों में!
क्यों सोया दिल
तन्हाओं में!
क्यों खोया दिल
तेरी बातों में!
क्यों चाहे दिल
तेरे ही चेहरे को!
क्यों भूले दिल
बीती यादों को!
क्यों गाया दिल
तेरी बेवफाई पे!
क्यों सताता दिल
तेरे ना होने पे!
फिर आ भी जाओ
यही चाहे मेरा दिल!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/१/१८

"तेरा दिल भी निकाल लूँ"

तेरा बेवफ़ाई पर
मेरा इंतकाम तो कुछ भी नहीं
तेरा दिल भी निकल लूँ तो
मेरा दर्द कम न होगा
जो रोज मेरी आँखों से
बिना रोके टोके निकलता
शोर ज़ोरा भी नहीं करता!
पर धड़कनों की गति में
अवरोध पैदा करता तो
कभी रक्त के संचार में
रूकावटें डालता है
कभी मन में द्वैत पैदा करता है
कभी मस्तिष्क को
इधर उधर भटकाता है!
क्या तुझसे प्यार करना
बदले में थोड़ा प्यार
तुझसे पाने की उम्मीद में
मेरा रोज जीना मरना
तुझे गंवारा नहीं जो
मेरी पहली भूल आखरी भूल
बनकर रह गई
पुन:भूल करने के लिए
एक दिल होना जरूरी
जो पहले ही तुम्हें दे दिया
इसलिए तो मुझे पेसमेकर
जल्दी लग गया
चाहे जितनी बार दिल तोड़ों
दिल टूटेगा नहीं
जब मेसमेकर के कलपुर्जे जबाब देगें
सब कुछ शांत हो जाएगा
जो मेरे अंदर बाहर उबल रहा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/१/१८

"सफेद बाल"

ये सफेद सफेद होते बाल
बढ़ती उम्र की निशानियाँ है
जाता यौवन आती प्रौढ़ता
जैसे जवानी में बर्रे बुढ़ापा में ढर्रे!
पर अब तो बच्चों तक के बाल
बढ़ते प्रदूषण व शरीर में
पोषक तत्वों के आभाव में
पकते ही रहते है
सफेद बाल मकई के उस
बाली के समान है जो धीरे धीरे
पीले से लाल हो जाते
मतलब आदमी बुद्धू से
समझदार बन जाता
वो अपना भला बुरा
समझने में सक्षम है!
एक एक करके सिर के
सफेद होते बाल एक दिन
काले बालों का स्थान लें लेंगें
तब भी मैं वही "अर्चना"रहूँगी
फर्क बस इतना होगा
आज जीने के बहुत दिन बाकी
कल मरने के कुछ दिन शेष रहेगें!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
९/१/१८

"हम क्या कहे तुमसे"

हम क्या कहे
जब तुमने मुँह मोड़ लिया
हम क्या सुनाये
जब आपका जी भर गया
इस बेख़ुदी में हमने
गमों की चादर को
कुछ इस कदर ओड़ लिया
जैसे हिमालय ने बर्फ को
पृथ्वी ने आसमान को!
दर्द की आग में हम
अंदर ही अंदर जलते रहे
जैसे की दिया बाती से!
आश्रुओं की धारा हमारी
आँखों से ऐसे बही
जैसे की नदी में बरसात हो!
निराशा में हम यूँ डूबे रहे
जैसे चाँदनी को काले काले
बादल ढ़के हो!
उदासी में हम पर छाई रही
जैसे पेड़ से बंसत में झड़ते हो पत्ते!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
९/१/१८
मौलिक रचना