Wednesday 27 February 2019

"ये कैसी आगे जाने की दौड़ है"

ये कैसी आगे जाने की दौड़ है
चढ़ जाने की हौड़ है
ये कैसी उन्मुक्त दौड़ है
कोई ऊपर चढ़ा जा रहा
कोई नीचे रौंदा जा रहा
कोई आगे निकल जा रहा
कोई हासिये पर जा रहा!
जान तक सस्ती हो चुकी
दुर्धटना में ही लाखों की जाती
हेल्मेट पहने की सलाह सदा ही सवार को
फॉलो की दी जाती पर
बड़े गाड़ी चालक लापरवाही में
सवार व सवारी की जान ले रहे
कारण शराब का नशा बता रहे
तो कभी गाड़ी की यांत्रिक खराबी का!
पर जान निर्दोषों की जा रही
कभी जानवर तो
कभी इन्सान कलयुग में
सभी हो गए हैं समान
वक्त ना रहा किसी को रूकने का
धौर्य नहीं रहा किसी का आपे पर
बस आगे ही आगे जाना है
सब कुछ जल्दी जल्दी पाना है!
किसी माँ का बेटा- बेटी तो
किसी की मांग का सिंदूर तो
किसी के सिर का साया
तो किसी के सूत का रक्षक ना रहा
पर किसी को क्या फर्क पड़ता है
प्रशासन की रहती लापरवाही
व्यवस्था में जल्द न होता कोई सुधार
झूठे वादों से चलता राजनीति व्यापार
सड़को पे गढ़े वैसे के वैसे
और पटरियों का रहता खस्ता हाल
शहर सौदर्यकरण के नाम पर
घोटालों का तौफ़ा जनता को मिलता!
कोई तो रोको इस बढ़ती दुर्घटना को
कोई तो टोको नियम पर चलने को
यातायात के नियमों में कठोरता लाओ
इनपर कड़ा से कड़ा शुल्क लगाओ
हत्यारे है जान के इनको ना बख्शो!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

Tuesday 26 February 2019

"ओट"

मेरी घुँघट है
किसी पर को सीधे सीधे ना ताकने की
क्योंकि नजरों से नजरों मिली तो
मेरे आवाँरा होने का भय
तुमको सताता है और तुम
परस्त्री के साथ जो चाहे करों
मैं अपनी खुली आँखे भी बंद कर लूँ
सदा के लिए ये तो ना होगा
मुझसे अगर मैं मर्यादा समझ
ओढ़ रही ये ओट तो
तुम भी असीम ना हो
मर्यादा की पोटरी
लाज का कफन
संस्कारों का बोझ
परम्पराओं की बेड़ी को
मैं कब तक ढ़ोउँ
इसलिए मैंने सब उतार दी
तुमने मेरी स्वतंत्रा को
स्वच्छंदता कहा
मेरे परपुरूष से मित्रता को
"चरित्रहीनता"कहा जो चाहे कह दो
अब मैं और घुँघट की ओट
मैं ना रहने वाली अच्छा हो कि
मैं इनसे आजाद होकर मरूँ
चाहे तुम्हारे हाथों से!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार

Monday 25 February 2019

"विस्मृत सी मैं हो रही"

विस्मृत सी मैं हो रही
जाने क्यों विस्मृत सी मैं हो रही
ओझिल हो रहा
मेरा अतीत बंद पलकों में
तो संभाल रखा था
अभी तो मैं वृद्ध भी नहीं हूई
जो मेरी यादाशत कमजोर हो!
फिर क्यों यादों का कोष खाली हो रहा
वो बीती बातें
वो मुलाकातें
वो बीते दिन
वो रातें
वो सब कुछ जो कल तक
मेरे पास था जाने कहाँ खो रहा!
भविष्य तो गर्त में छुप कलवटें ले रहा
पर मेरा वर्तमान क्यों हाथों से जा रहा
मैंने बंद मुठ्ठी में कर रखी है फिर भी!
जाने क्यों विस्मृत सी हो रही
ओझिल हो रहा मेरा अतित
ऐसा लगता मानो बरसों हो गए हो
मेरे तुम से मिले हुए
अभी रात तो मिले थे ख्वाबों में!
डाॅक्टर ने कहा मेरे मन का टूटन है
अब तो ऐसा होगा ही
जल्द ही मैं तुमको
फिर खुद को भूल जाऊँगी
फिर सब कुछ शून्य में चली जाऊँगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"मैं बदनाम होना चाहती हूँ"

मैं बदनाम होना चाहती हूँ
तेरे नाम से
तेरे शहर से
तेरी गली में
तेरे मोहल्ले में लोग पुकारे मेरा नाम
तेरे नाम से देखो उसकी
मासूका जा रही है!
पर मेरी बदनामी में
तु भी बदनाम हो जाएगा
जो मैं कभी जीते जी
अपने होने ना दूँगी!
चाहे तेरा नाम लेते लेते
मेरा नाम "अर्चना"ना मिट जायें!
कुमारी अर्चना"बिट्टू'

"अमलताश के अनमोल पुष्प"

अमलताश के अनमोल पुष्प भेज रही
तुम्हारे लिए इसे मेरी प्रीत समझ रख लेना
बटुए में गोंद सी सीने पर चिपके रहूँगी
गंधहीन है फिर भी मेरे प्यार की
खट्टी मिट्ठी प्यार की खुशबू देंगी
तुम ही मेरी पहली और
आखरी सच्ची मोहब्बत थे
बाकी मन बहलाने की वस्तु मात्र
जिनसे मैं अब चुकी हूँ!
झूठा लगता है मुझे उनका प्रीत जताना
देखती नज़रों में वासना का छलकना!
बातों में पहले सी धोखे की
बदूब का आना ढ़ोग लगता
उनका कुछ करना या कह जाना!
नजरों से उनकी नियत पढ़ लेती हूँ
जैसे तुम्हारे मन को पढ़ लिया था
ये वही शख्स है जिसको मैं
अपना दिल दे सकती हूँ
तन दे सकती हूँ पर तुम्हे कुछ भी
मेरी प्रीत के बदले नहीं चाहिए था
सिवा प्रीत के!
तुम कोई साधारण मानव नहीं
महापुरूष हो मेरे लिए
श्रृद्धे हो तुम इस श्रृद्धा के
मेरे दिल के कोने भी सदा तुम शेष रहोंगे
यादें बनकर मेरे अशेष बनने तक!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

Sunday 24 February 2019

"क्या कोई मायने है दिवसों को मनाने के"

साल के तीन सौ पैंसठ दिन
पलक झपकते मानो बीत जाते
ऊपर से हम राष्ट्रीय,अंर्तराष्ट्रीय और
त्योहारों मनाने में बीत जाते है
उम्र के साथ साथ खुशियाों के रंग
जरूरतों के आगे फीका पड़ जाता है
फिर भी अपने धर्मिक त्योहारों को
कर्ज लेकर भी हम मना लेते है!
राष्ट्रीय दिवस एकता के लिए
और ये दिवस साठ से ज्यादा
और अर्तराष्ट्रीय दिवस
विश्व शांति के लिए ये भी
ढेड़ सौ से लगभग ही है
दिवस हर वर्ष क्यों मनाएं जाते है?
आखिर इनका क्या उदेश्य है?
क्या दिवसों का फायदा भी होता है?
केवल कई दिनों की बर्बादी है
व्यक्ति सरकारी तन्ख़ाह तो उठाता
पर कमचोर बनता चला जाता
पश्चिमी देशों में दिवस मनाएं जाते है
खास अवसरों पर ही अवकाश मिलता
पश्चिमी देशों में एक धर्म,एक भाषा होने से
धार्मिक छुट्टियाँ कम होती है
भारत बहुलभाषी,विभिन्न धर्मावलंबी
लोगों के राज्यों का एक देश है!
दिवस मनाकर हम शहीदों की
कुर्बानी सदा याद करते है
नेता समाधि पर फूल चढ़ाते है
और लंबा चौड़ा भाषण देते है
जनता एक कान से सुनती है
दूसरे से कान से निकालती है!
जरूरत है उनके उपदेश व विचारों के
पालन करने की समय की उपयोगिता को
समझते हुए ज्यादा कार्यशील बनने की
देश संवृद्धि और विकास करने की!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"मनहरण धनाक्षरी"

जवानों का रक्त गया
बेटा देशभक्त गया
देख के कलेजा फटा
बात ये जुबानी है!
खुले घूमते जिहादी
मिले घाटी में आजादी
विशेष ना हो संविधा
बात ये हटानी है!
उग्रवाद को मिटाना
धूल शत्रु को चटाना
उग्रवाद के खिलाफ
बन्दुके उठानी है!
बना डालो रे कहानी
बचे ना कोई निशानी
शत्रु को अपनी अब
ताकत दिखानी है!
कुमारी अर्चना 'बिट्टू'
मौलिक रचना

"बदला चाहिए वीर शहीदों का"

शब्द क्यों मौन हुए है
मातम पसरा हर ओर है
वीरों की कुर्बानी से रक्त रंजित हुई है
भूमि रो रही है धरती माँ
फट रहा माँ का कलेजा
छीन गई बुढ़ापे की लाठी
उजड़ गई मांग का सिंदूर
सुनी पड़ी बहन की राखी
बच्चों का छीना बचपन!
लड़ रहे" जिहाद"युवा
जिस कश्मीर की आजादी का
उस कश्मीर के कर दो टूकडे टकड़े
विशेष संविधान का अधिकार
और विशेष राज्य का दर्जा हटाओ
बना दो उसे सभान्य राज्य!
भरी जिसके सीने में नफरत हो
चीर दो उसके सीने को
हिंदू हो या मुस्लिम हो
आंतकी जो मचाए आंतक
नामोनिशान उसका मिटा दो
फिर से करो सर्जिकल स्ट्राइक!
जो कर रहे हमारी सीमा को कम
मिटा दो उसके नक्शे को
विश्व के नक्शे से सदा के लिए!
समझाने पर जो ना समझे
छोड़ दो परमाणुबम मोदी जी
जनता मरती है तो मरने दो
आर पार की तुम जंग लड़ो!
पहले भी भारत पाक के बीच
तीन युद्ध लड़ चुके चौथे के लिए
हम नौजवान युवक युवती
वृद्ध और बच्चे भी तैयार है
देश के लिए गोली खाने को बदला चाहिए
पुलवामा हमें शहीद हुए चालिस सैनिको का!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

Friday 22 February 2019

"तुम मुझे अपने दिल पर सो लेने दो"

सोने को तो बहुत जगह है
जहान में पर कहीं मेरे दिल को शुकून नहीं
बैचेनी सी होती है मन को
इसलिए मैं तुम्हारे दिल पर सो रही हूँ!
मुझे पता हैतुम्हारे दिल में मैं नहीं हूँ
पर मेरे दिल में तुम ही तुम हो
सुबह ख्वाब खुलते ही चली जाऊंगी
रातभर मुझे दिल पर सो लेने दो!
दिन के उजाले में तो ज्यों त्यों सो लेती हूँ
रात के अंधेरे में मुझे घबराहट सी होती है!
कुछ पल के लिए मुझे चैन से लेने दो
तुम मुझे अपने दिल पर सो लेने दो!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"क्या क्या दिखाऊं क्या क्या छुपाऊं"

कई आगें सुलग रही
कौन सी बुझाऊं
कई दर्द छुपे सीने में
कौन कौन सा दिखाऊं
गमों में मन उलझा
कौन सा गम भूलाऊं
तुमको भूलना चाहती हूँ
पर खुद को भूल गई
जख्म इतने गहरे है
मरहम भी बेकार हुआ
मैं भंवर में फंस गई हूँ
और मुझे में मन!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"कोई शब्द नहीं आज कहने को"

कोई शब्द नहीं आज
किसी से कहने को
मैं बस तुमसे कुछ
कहना चाहती हूँ
मैं अपने दिल का दर्द
सिर्फ तुम से बाँटना चाहती हूँ
कोई शब्द नहीं आज
किसी से कहना को!
मैं अपना सारा प्यार
तुम पर लुटा देना चाहती हूँ
बदले में मैं तुम से आश्रय चाहती हूँ
भर लो मुझे बाँहो में आज
मैं हम दोनों के बीच की
हर दूरी मिटा देना चाहती हूँ!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"जिन्दगी दो पाटों के बीच"

जिन्दगी दो पाटों में
आधी आधी बट गई
एक में मैं हूँ एक मैं तुम हो!
आधा अधुरा प्यार मिला
आधी अधुरी जिन्दग़ी
ना कुछ भी पुरा मिल सका
ना मैं कभी पुरी हो सकी
ना मेरी जिन्दग़ी!
अधुरी ख्वाइसों की तरह रह गई
प्रश्नचिन्ह है मैं और मेरी जिन्दगी
क्या यूं ही अधुरी रह जाएगी
तुम बिन....!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"जंदा लाशे क्यों नहीं बोलती है"

आदमी जब रोज रोज
देख देश की स्थति पर चिल्लाता है
रोज बढ़ती मँहगाई पर
खुलकर हँस नहीं पाता
मेहनत कर भी कमाई का
कुछ बचा नहीं पता!
कालाधन के नाम पे सरकार
गरीबों की उम्र पूँजी जप्त करत लेती
अमीरों के पैसे स्विस बैंक की शोभा बनाते
यहाँ गरीब की गरीबी तमाशा बनती
बच्चों के एडमिन के नाम पर
लाखों डोनेशन की फीस भरके भी
शिक्षा व्यवस्था पर न रोता है
अपने अमीरों के कुत्ता पैदा न होने पर रोता है!
मर जाने पर लाश न बोलती तो
मीडिया बार बार भौंक बताती है
नेता अशवासन की घुट्टी
जनता को पिला वोट बैंक वसूलती है!
आखिर और कब तक हम
आम आदमी बेवकूफ बनते रहेंगे
खून जलाकर पसीना बहाते रहेंगे
सब्र की भट्टी में तपते रहेंगे
आश की चाहत में यूं जिन्दग़ी
आधी पेट काट काटकर जीते रहेंगे!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ, बिहार मौलिक रचना

"जब मिले हम बसंत में"

बसंत बहे प्यार में
मैं बहु तेरे प्यार में
मनका पक्षी पीहू पीहू करे
जियरा से चैन उड़ जाये!
धूप गुनगुनी मोरा जौबन खिलाये
मंजरी की छटा उपवन महकाये
देख पपीहा डाली पर मुस्काये
शीतला पवन मोरी धानी चुन्नरी बनकर
मोह से लिपट जाये
अरूणोदय जब रश्मियाँ बिखराये
यामिनी चाँदनी को नहाये
अलबेली का अलबेला से मिलन
मधुमास बन जाये!
कुमारी अर्चना 'बिट्टू'

"कुंठा"

अंदर ही अंदर घुल मिल रहा
था बाहर सुखा सुखा था
उजड़ा उजड़ा था
काला अंधेरे तैरता था
उजाला कहीं अंतस में
दूबक सिसक रहा था
हाथ बढ़ाकर भी मुठ्ठी पर
धूप को कैद नहीं कर सकता था
अपनेउजाले के लिए!
वो कुंठित था हीन भावनाओ से
वो कुंठित था अकेलेपन से
वो कुंठित था दूसरे के व्यवहार से
वो कुंठित काम की इच्छा था
वो कुंठित था आज्ञात भय से
वो कुंठित था असफलाओं से!
आज का मानव पता नहीं
सुख सुविधारत होकर भी
अपनी ही समस्यों में फंसा है
वो लक्ष्मण रेखा खुद को घेरे में
रखकर खींच चुका है
दूसरी के बारे में सोचना तो दूर
बात तक नहीं सुनना चाहता है!
हम किस दुनिया में जी रहे
जहाँ बाहरी दुनिया तो
इटरनेट पर ग्लोबल है
परन्तु आंतरिक दुनिया खुद की
चार दिवारी सीमित है
कब हमारी आंतरिक और
बाहरी दुनिया का समागम होगा!
ये कुंठा कब दूर होगी या
ये भी एक भयानक जानलेवा रोग
बन जाएगी जो मानव को अंदर ही अंदर
जर्जर व दिशाहीन कर देगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

"मैं शहर हूँ"

मैं शहर हूँ
मुझ रहने वाला मेरे सच से बेखबर है
वह मुझे धीरे धीरे जानता है
जब वह खुद को भूल जाता है!
मेरी जगमगाती रोशनी देखकर
अपने सपनों को सच करने
भागते सब मेरे पीछे पर
मैं खुद छोटा सा,नन्हा सा,पिद्दी सा हूँ
कहाँ से समा पाऊँगा सबको मैं शहर हूँ!
ढ़ेर सारी खुशियाँ तो देता हूँ पर बदले में
अकेलापन,घुटन देता हूँ
बहुत सारी सपनें तो देता हूँ
पर अपनों को अपनों से छीन लेता हूँ!
चौंधियाँ जाते सब मेरी चमक देखकर
अपनी खुली आँखें भी बंद कर लेते!
मुझ से मुकाम पाना सब चाहते
पर मुकम्ल मैं किसी किसी की
जिंदग़ीयों को करता हूँ
लौट जाते खाली हाथ
इस शहर से वो
जिनकी जिंदग़ीयों को
मैं नहीं सँवारता हूँ
मैं शहर हूँ!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'

Thursday 21 February 2019

"पाबंदियों के पैबंद"

पाबंदियों के पैबंद
जाने कितने लगे मुझ पर
कभी तुमने थोपे कभी समाज ने
कभी मैंने खुद को ढो लिए
स्त्री धर्म समझकर,जाने कितने?
गिनने लगूँ तो ये ज़िदग़ी बीत जाए
कभी पाँव की पाज़ेब बनकर
कभी माथे की कुमकुम बनकर
ये प्रतीक चिन्ह है तुम्हारे जो
सदा रहते मेरे पास लाश तक जाते
मेरे साथ कि मैं तुम्हारी हूँ इस शरीर में!
पंख तो मेरे पास भी हैं
पर आसमान में कटे परों से
मैं उड़ान भर नहीं सकती सिवा फड़फड़ाने के!
कोशिश करती रही हूँ
सदियों से सदियों तक
प्रतिकों की आजादी के लिए
और करती रहूँगी!
मुझे नहीं पता बस इतना जानती हूँ
करते रहना है जब तक तुम पुरूष मुझे
आजाद ना कर दो पाबंदियों के पैंबंद से!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

"सड़क हूँ मैं"

रोज रोज रौंदी जाती हूँ
तुम्हारे कदमों के नीचे
गाड़ियों की फट फट से कभी सोचते हो
जब चलते मुझ पर नहीं ना,
भला क्यों सोचोगे तुम
जब तुम सजीव के बारे में नहीं सोचते
तो मुझ निर्जीव के बारे में क्यों सोचोंगे
शायद वक्त नहीं तुम्हारे पास
दुर्धटनाएँ आए दिन इतनी क्यों होती
पहले जमाने में नहीं हुआ करती थी
तब इतनी सुविधाएँ भी नहीं होती थी
आज तो तुम सुविधा संपन्न हो
आधुनिक तकनीक और तकनीशियन
चारों पहर उपलब्ध है!
सड़क बनाने में घटिया सामाग्रियों का
प्रयोग होता है और सारा दोष मेरे सिर आता
शराब पी वाहन तुम चलाते
तुम्हारी लापरवाहियों से आए दिन
दुर्धटना होती लोग मुझे कोसते,
जीवन है तुम्हारा अनमोल
इसलिए मेरी वक्त पर मरम्मत करते रहो
सड़क पर मत थूको मुझे बुरा लगता है
जैसे तुमको लगता जब कोई
तुम्हारे चेहरे पर थूकता
मुझे सुन्दर बनाए रखो
क्योंकि तुमको मुझ पर चलना है!
कुमारी अर्चना'बिट्यटू'

"अगर मैं नूडल्स बन जाऊँ तो"

अगर मैं नूडल्स बन जाउँ तो
क्या खाओगें तुुम मुझे बोलो बोलो ना!
दो मिनट में बन झट से बन जाउँगी
पट से तुम खा लोगे मुझे पर
किस नूडल के पैकेट में मैं छुपी हूँ
ये कैसे पहचान पाओगें अगर
तुम भी मुझे उतना ही प्यार करते हो
जितना मैं करती हूँ तो
मैं किसी भी रूप में आउँगी
तुम जान ही जाओगें वो मैं हूँ!
एक बार अंदर गई तो
फिर मैं बाहर नहीं आउँगी
वही तुम्हारे आँतो में दुबकी रहूँगी
एक कीर्म बनकर तुम्हारे शरीर में
प्रवेश करनेवाले कीटानूँओं को खाकर
तुमको स्वस्थ व खुशहाल रखूँगी!
क्योंकि मैं वो नूडल्स नहीं जो
किसी के पेट के अंदर प्रवेश कर
नुकसान पहुँचाती है मैं तो
परजीवि कीर्म बनकर तुम्हारा सुपोषण करूँगी!
अगर मैं नूडल्स बन जाउँ तो
क्या खाओगें तुम मुझे
काश् मैं नूडल्स होती जीवांत स्त्री नहीं!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार

Saturday 9 February 2019

"एक अंधा और उसका अंधेरा"

गाड़ी में बड़ी भीड़ थी
आदमी ऊपर था या
नीचे इतना पता करने का
किसी के पास फुर्सत ना थी
बस की सीट चाहिए थी
विक्लांग की सीट खाली थी
क्या उनका हक़ मारना न होगा
समझ ना आया क्या करूँ
महिला सीट फुल थी
बैठे आखिर किसके ऊपर!
उसने बगल वाली सीट पर
बैठने का इशारा किया
मारे खुशी के कुछ ना सूझा
फिर बातों के सिलसिले बने
वो एक पढ़ा लिखा
शामला सा नौजवान था
स्टिक को ऐसे पकड़े हुए था
जैसे जीवन का सहारा हो
अंधेरे और उजाले दोनों में
सब बराबर जो है उसके!
मेरा उससे बातें करना
उसका मेरी बातों को सुनना
उसके दर्द मुझसे बाँटना
मेरे मन का हलका होना
उसके आँखो का चमकना
मेरे ओठो का मुस्काना
उसे बहुत अच्छा लगा
मुझे भी वो भला लगा
उसका बाय बाय मुझे हाथों से कहना
आँखो में फिर मिलेंगे का आशा भरना
बातों के लिए"शुक्रिया"कहना
मेरी आँखों में आँसू का ठहरना!
दिल ने कहा ऐसे का हाथ
जिंदगी का साथ चाहिए था
फिर ना वो कभी मिला
जब भी किसी अंधे को देखती हूँ
तो अंधेरे के साथ उसकी याद आती है!
उजाला अंधेरे के साथ चले तो
अंधेरा धरा से मिट जाएगा
दिलों से भी दूरी घट जाएगी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार

"तेरी याद बहुत आती मिट्टू"

तेरी याद बहुत आती मिट्ठू
तूबिट्टू बिट्टू पुकारा करता था
पहले पहले तू कुछ नहीं बोला करता था
एक बार मूझे गुस्सा आया
और मैंने तुझपर चप्पल उठाया!
जिद्दी लड़की हूआ करती थी
तब मैं भय से समझा तुने
या मेरे प्यार का असर पड़ा तुझ पर
क्योंकि मैं और मेरे दोनों भाई
तुझे हरी मिर्च खिलाया करते थे
बाद से तू बस मारा नाम ही
पुकारा करता था मिट्ठू मिट्ठू बिट्टू बिट्टू!
ईष्या सी होती थी सब को
तू केवल मेरा नाम क्यों पुकारा करता है
एक बार माँ को जाने क्या सूझी
ऊपर से गिरते तेज पाइप के आगे
तुझे पिजड़े सहित रख डाला
पहले तो तू उछल उछल नहाया
फिर पानी की चोट से और
ज्यादा देर से रहने से तू ना बचा!
माँ को तेरा घर आँगन में
गंदा करना नहीं भाता था
सबने माँ को दोषी बनाया
माँ ने अपनी गलती स्वीकार की
पहले तो हम खूब रोये फिर
कोई तोता ना घर लाएंगे जो
बिट्टू बिट्टू पुकारेगा
तेरी याद बहुत आती मिट्ठू!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

Friday 8 February 2019

"तुम्हारा लिहाफ़"

तुम्हारे लिहाफ़ सिमट गया
मानो मेरी जिंदगी बनकर
जब भी खाली खाली मुझे लगता है
मेरे अंदर तुम्हारे लिहाफ़ से
खुदको समेट लेते हूँ!
तुम्हारे उसी गर्मी को
फिर से पाकर मैं भर जाती हूँ
पूरी की पूरी स्फूर्ति से!
खालीपन जब भी मुझे काटने दौड़ता
फिर से पुराने उन्हीं दिनों में लौट जाती हूँ
रात को तुम्हार लिहाफ़
मेरे पास ही रह गया था
और तुम छूट गए थे
जैसे देर पहुँचने पर
गाड़ी सिटी भरती हुई
छुक छुक छुक करती
अपने गंतव्य स्थान की
ओर चलने लगती है
सवारी फिरसे अपने घर!
पर मैं तो वही हूँ
तुम आगे निकल गए
मेरी जीवन यात्रा आज भी
अंधूरी जैसे की मैं!
और तुम्हारी पूरी हो रही
एक पूरी भी हो जाएगी
तुम्हार लिहाफ़ मेरी जिन्दगी के साथ
रहते रहते एक दिन
मेरी रूह से लिपट जाएगी
हो सके तो अपना भूला लिहाफ़ लेने के
बहाने मेरे कब्र पर फूल देने
तुम आ भी जाना क्योंकि
मुझे तुम्हारे उन्हीं फूलों का इंतजार है
जो तुमने कभी नहीं दिए!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

"नारी स्वंय मैं एक प्रश्न हूँ"

नारी स्वंय मैं एक प्रश्न हूँ!
और प्रश्न चिह्न लगा मेरे वजूद पर!
मैं हूँ भी या नहीं या केवल
पुरूष का एक अंशमात्र हूँ!
तभी तो मेरी स्वतंत्रता
मेरे अधिकार
मेरा शरीर
मेरा गर्भ
मेरा निर्णय
सब पुरूष के अधीन है
और मैं पराधीन हूँ!
सदियों से सदियों तक
छटपटाहट है पितृसत्तात्मकता से!
अभिव्यक्ति की विवाह की
गर्भ धारण की
बेटी जनने की
निर्णय लेने की पूर्ण आजादी से!
मैं कृतज्ञ हूँ अपने
अस्तित्व को बचाने के लिए
और अपने वजूद को
अपने ही अंदर तलासने के लिए
ये मेरे स्वालंबी बनने का सूचक है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना 5/2/18

"मेरी मंजिल वही है"

मेरी मंजिल वही है
जहाँ तुम मिल जाओ
चाहे नदी की धारा हो
चाहे समुद्र का प्रवाह हो
चाहे तूफानी लहरे हो
चाहे उमड़ता बादल हो
चाहे मचलती पवन के झौंके हो
चाहे ज़िदगी का सफर हो
चाहे मौत की मंजिल हो!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"ना मिल तो बस तुम"

ये ज़िदग़ी मुझे मिली
और यहाँ मिली
ख़ुशी-ग़म
हँसी -आँसू
इज्जत -ठोकर
अपने-पराये
दोस्त -दुश्मन
ना मिले तो बस तुम!
वजूद पर प्रश्नचिह्न लगा
मेरा तुम बिन अधुरी रह गई
मैं और मेरी ज़िदग़ी!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"नदी के सीने पे रखा"

नदी के सीने पर रखा
अनेकों अनेकों पत्थर
दर्द तो दोनो को होता
एहसास ए दिल ना होता
दोनों की सिसकियों को
ना तुम ना कोई और सुनता!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

"काश् कोई मेरे लिए भी"

काश् कोई मेरे लिए भी
हरी हरी चुड़ियाँ लाता
सावन की वो मस्तानी चुड़ियाँ
मुझे हरी करने को!
खुद अपने हाथों से हौले हौले
मेरी कलाईयों पर पहनाता
वो मुझमें खो जाता मैं उस में!
मैं एक बार नजरें उठा देखती
एक बार अपनी चुड़ियों को
वो सोचने को मजबूर हो जाता
मैं किसी चाहती हूँ
उसको या हरी चुड़ियों को!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

Thursday 7 February 2019

"माली सा कोई नहीं"

सींच रहा वो पौधों को देकर
अपना ख़ून-पसीना
नित सवेरे नहा धुलाकर
आँगन जैसा अपनी बगीया को
कर देता वो चकमग!
फूलों की खुशबू जब फैलती
चाँदनी रातों में गमगम करता सारा उपवन
चाँद मुनवार करता चाँदनी को
प्यार की प्यास बुझाने को!
टूटे पत्तों को देखकर होता
उसका मन होता उदास
बार बार उन्हें वह वही जोड़ता
जिन टहनियों से वो टूटे थे!
पौधों की चिलखती धूप में देख
वो मानो खुद झुलस जाता
कहीं पेड़ सुख न जाएं
कोमल कोपलें जल न जाएं
तो कभी अवसाद से घिर जाता
कोई तोड़ मड़ोड़ कर फेंक दें
कोई उखाड़ कर उसका आँगन
बिन बच्चों जैसा सुना न कर दें
बगीया कि सेवा करते करते
वो खुद बन जाता पौधा!
कीड़ो से पौधो को बचाने हेतु
सदा जैविक खादों का करता प्रयोग
रसायनिक दवाओं और छिड़काव से
पौधों को नष्ट होने से वो बचाता
किसी कारण से ग़र मर जाते हैं
वो अपनों जैसा शोक मनाता हैं
दिल के आँसू आँखों तक उतार लाता
मन मसोर कर कभी वो चुप रह जाता
माली के फूल व पौधे सबका मन मोहते
वो कभी किसी के दिल में न उतर पाता!
काश् मैं भी माली बन जाऊँ 
सदा करती रहूँ मेरे बगीया की सेवा
जैसे माता -पिता करते अपने
संतानों की एक समान सेवा!
कुमारी अर्चना 'बिटूटू'
मौलिक रचना

"धोखा"

धोखा हमने कहाँ खाया 
 वो तो बेचारा दिल था 
 जो टूट कर बिखर गया
 कभी ना किसी से जुड़ने के लिए 
 ना गम़ से उबरने के लिए!
 सारी उम्र आँखो को 
आश्रु बहाने के लिए खुली कर गया
 अब तो मौत भी ना आएगी 
क्योंकि तुझे पाने के लिए 
मेरी रूह़ यही तड़पती रह जाएगी 
 जन्नत तक खुदा से मिलन ना कर पाएगी! 
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
 पूर्णियाँ,बिहार
 मौलिक रचना