हाँ,चींटी हूँ मैं
इत्ती सी
कभी झट से इधर
तो कभी पट से उधर लाल,
भूरी व काली सी दिखती हूँ!
बित्ती सी भी ना हूँ तुम्हारे दो
अँगुलियों से बच के निकल पाऊँगी
मसल दी जाऊँगी
मुझे पता है अपनी औकात
मात्र पंद्रह वर्ष की है
मेरा जीवनकाल!
सब करना है मुझे इतने ही कम दिनों में
रोज जिंदा रहने के लिए भोजन की
खोज भी मुझे खुद ही करनी है!
नाजुक सी हूँ रेंगती हूँ जमीन पर
उड़ाने आसमान में भरती हूँ
धीमी सी चाल में चलती हूँ मैं पर
लक्ष्य चाहे कितना ही कठिन हो
पर्वत,पहाड़,चट्टान ही क्यों न आए
मैं हर पथबाधा पार कर जाती हूँ
एकता है हम चींटी में और तुम में!
न हम जात-पात,गोत्र व धर्म के
नाम पर लड़ते मारते न कभी
अपने माँ बाप को वृद्धाआश्रम छोड़ने को जाते
हम सारे परिवार चींटी परिवार है
क्या तुम सारे मानव परिवार नहीं हो
हम अपने मुखिया के कहने पर
खाई से भी छलांग लगा देते है
परिवार का एक एक सदस्य
महत्ता रखता है अपनी न हम बच्चें
बूढ़े माँ बाप को बाँटते है न
अपनों को बाहर मरने बेसहारा छोड़ते
एक चींटी के मरने पर हम सभी
उसकी लाश को ढ़ोते चींटी श्रृंखला बनाकर
बाद मिलबाँट कर खाते है!
हम चींटी एक सामाजिक कीट है
पर तुम सामाजिक प्राणी होकर भी
असामाजिक कैसे हो!
तुम मानव भी चींटी बनो
फिर तुम भी एक परिवार बनकर साथ रहोंगे
फिर कोई रोटी,कपड़ा और
मकान के बिना कभी मरेगा
न कोई माँ बाप वृद्धाआश्रम में जाएगा!
मैं "अर्चना" चींटी नहीं हूँ
पर चींटी जैसा ही बनना चाहती हूँ!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
27/12/18
Friday, 7 September 2018
"हाँ,चीटी हूँ मैं"
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