उसको मुझसे कभी प्यार न था
इसलिए मुझपर एतबार न था
वो शीशे समझ दिल तोड़ गया
मैंने कांच समझकर रख लिया
बार बार जख्मों को कुरती रही
प्यार की पौध हरी रख सकूँ!
स्वतः संवाद करती हूँ
अन्दर ही अन्दर उसकी कमी
रोज भरती रहती हूँ
कहते हैं मोहब्बत करनेवाले के
दिल से दिल मिलते है
पर मुझे तो लगता है फेफड़े भी
मिलन के लिए मचलते है
रोम रोम प्यार की शरद छाँव में
डूबता जाता है
रक्त की धमनियाँ और शिराएँ
गर्म आँहें भरने लगती है
उससे मिलने के लिए
जिस्म के साथ रूहें भी
तड़पने लगती है!
फिर भी किसी से इक तरफा प्रेम
किसी पत्थर को मोम नहीं बनाता
वो इन्सान खुद पागल हो जाता है
पर दूसरे को दिवाना न कर पाता है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
कटिहार,बिहार
मैलिक रचना
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