Thursday 6 June 2019

"जेठ की दोपहरी"

चिचलाती सी धूप
माथे से टपकता आँसू
बनके जब पसीना
साँस बस चलती
उड़ती धूल बनके
हवा सुरज दवानाल उगलता
गगन न देती छाँव
पेड़ पौधे प्यासे तड़पते
इन्सान उमस से
मछली सा फड़फड़ाता
जमीन पर नंगे चलाना
हो जाता है दूरभर
पक्षियों चाल होती धीमी
दाने दाने की खोज में
एक छत से दूसरे छत पर आते
मिलों दूरी तय कर जाते!
गुलमोहर के लाल फूलों वाले पेड़
गमकाते नहीं पर आँखों को बहुत भाँते
माँ के हाथों के खट्टे मिठ्ठे आचार
तरसाते अपने की याद दिलाते!
तुम से मिलन की न आशा
संध्या भी झुलसाती गर्मी
रात चाँदनी भी न भाँती
जो तुम मिलने न आ पाते
मिलन की प्यास रहती अधूरी
बैरन भई जेठ की दोपहरी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

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