जिंदगी के सफ़र में
शरीर के साथ साथ
एक दिन रूह़ सफ़र कर चलेगी
और हम भी!
सफ़र कभी सपनों में
कभी रेल पर छुक छुक कर
तो कभी बस की भीड़ में
कभी हवाई जहाज में उड़कर
तो कभी पानी जहाज में तैर
कर कभी बाइक से बैठकर
तो कभी पैद चलकर
जाने किंन किंन तरीकों से!
मालूम नहीं गंतव्य तक पहुँचने के लिए
हम सब क्या क्या नहीं करते!
फिर रूह भी सफ़र के लिए
शरीर के मृत्यु का इंतजार करती
कभी शरीर नाश्वर है तो
आत्मा शरीर बदलती है
जो आया है वो जाएगा
जैसी बातों संकेतिकता देती!
परमात्मा से मिलन के लिए
रूह स्वं वाहन बन जाती
जाना होगा एक दिन सबको
शरीर के साथ रूह के सफ़र में!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२०/१/१८
Saturday, 20 January 2018
"रूह सफ़र कर चली"
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