ये कैसा रोग मुझे लगा गया
प्रेम देकर भी प्यासा छोड़ गया
ना दिन को चैन ना रात को आराम!
डाॅक्टर भी नब्ज़ पकड़कर
मर्ज की दवा नहीं लिख सकता
दुआ भी ब़ेअसर हो जाती
ये कैसा रोग मुझे लगा गया!
परेशानियों का सबब़ दे गया
सुक़ून की दुनिया उजाड़ गया
आँखो से नींद ले उड़ गया
चेहरे पे उदासी दे गया,ओठों की हँसी ले गया
ये कैसा रोग मुझे लगा गया!
प्रेमरोग कहते है इसे, खूदनसीब़ो को मिलता है
पत्थर दिल क्या जाने प्यार
किस चिड़िया का नाम है
जिसे होता है वही जानता है
ये कैसा रोग मुझे लगा गया।
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
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