Thursday 1 February 2018

"मेरा कोई घर नहीं"

किसे कहूँ अपना
मेरा कोई घर नहीं कहाँ जाऊं
मैं जहाँ जाती वही घर छूट जाता
वो लोग अपने से पराये हो जाते
रिफ्यूजी सी हूँ
कभी यहाँ तो कभी वहाँ
मेरा कोई घर नहीं!
पापा का घर भाई का हो गया
सुसराल का घर पति का है
बाद बेटे का फिर पोते का
उसके बाद परपोते का
ये श्रृंखला ऐसे ही बनती रहेगी
जैसे कोई रसायनिक श्रृंखला हो
अंतहीन सी मेरा कोई घर नहीं!
फिर क्या कभी कोई मेरा घर न होगा
मैं बंजारन बनकर
एक गली से दूसरी गली में
बस धूमती रहूँगी जैसे पृथ्वी घूमती है!
मैं दूसरों की सेवा सत्कार
प्यार दुलार बस लूटाती रहूँगी
औरत ठहरी कर्तव्य की पोटरी
मेरे आँचल के छोर से बंधी है
मैं रिश्तों क डोर में!
परम्परा व संस्कार की पाठशाला का
पाठ आज तक न भूली
ठोक ठोक माँ ने सिखाया था
पति का घर ही तेरा होगा
उसे मैं कैसे भूलूँ
बस वो एक झूठा छलावा था
मेरे पिता की संपत्ति में
कभी दावेदारी न करने का
मेरा कोई घर नहीं!
पर यूँ बेघर न रहूँगी बनाऊँगी
अपने सपनों का महल
भले ही छोटी सा झोपड़ा क्यों न हो
मेरे ख़ून पसीने की क़माई का होगा
जो मेरा अपना होगा
फिर कोई ये न कहेगा
मेरा कोई घर नहीं!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
२/२/१८

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