किसे कहूं अपना
मेरा कोई घर नहीं कहां जाऊं
मैं जहां जाती वही घर छूट जाता
वो लोग अपने से पराये हो जाते
रिफ्यूजी सी हूं
कभी यहाँ तो कभी वहां
मेरा कोई घर नहीं!
पापा का घर भाई का हो गया
सुसराल का घर पति का है
बाद बेटे का फिर पोते का
उसके बाद परपोते का
ये श्रृंखला ऐसे ही बनती रहेगी
जैसे कोई रसायनिक श्रृंखला हो
अंतहीन सी मेरा कोई घर नहीं!
फिर क्या कभी कोई मेरा घर न होगा
मैं बंजारन सी बनकर
एक गली से दूसरी गली में
बस धूमती रहूंगी जैसे पृथ्वी घूमती है!
मैं दूसरों की सेवा सत्कार
प्यार दुलार बस लूटाती रहूंगी
औरत के कर्तव्यों की पोटरी
उसके आँचल की छोर से बंधी है
मैं रिश्तों क डोर में!
परम्परा व संस्कार की पाठशाला का
पाठ आज तक न भूली
ठोक ठोक माँ ने सिखाया था
पति का घर ही तेरा होगा
उसे मैं कैसे भूलूं
बस वो एक झूठा छलावा था
मेरे पिता की संपत्ति में
कभी दावेदारी न करने का
मेरा कोई घर नहीं!
पर यूं बेघर न रहूंगी बनाऊँगी अपने सपनों का महल। भले ही छोटी सा झोपड़ा क्यों न हो मेरे ख़ून पसीने की क़माई का होगा। जो मेरा अपना होगा। फिर कोई ये न कहेगा मेरा कोई घर नहीं!
कुमारी अर्चना
कटिहार,बिहार
मौलिक रचना
२/२/१८
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