Thursday 10 January 2019

"बुर्का"

हिज़ाब का रंगबिरंगा प्रकार
जैसे मेले में बिकती खुशियाँ हो!
देखने में तो हवाहवाई लगती पर
अंदर ताज़ी हवा न आने देती!
घुटती हूँ साँसों के लिए तड़पती हूँ
पानी के लिए जैसे हो कोई मछरी!
उड़ना चाहती आज़ादी के लिए
जैसे हो कोई चिडियाँ!
देह पर लगी लिबासों की पाबंदी
मन पर लगी गुलामी की जंजीरे
तोड़ूँ कैसे तो कैसे?
धर्म,संस्कार व संस्कृति सब क़ुरान की दुहाई देते
ना मानती तो मेरी रूस्वाई है!
मोहम्मद साहब ने तो हमारी अस्म़त की
हिफ़ाजत के लिए इसे पहनाई थी
पर ये मेरी गुलामी की प्रतिक बन गई!
सदियों से सदियों तक जन्नत जाकर भी
मैं मेरी देह के साथ मेरी रूह़ कैद हो गई!
कई ज़माते पढ़ने के बाद भी जाने क्यों
मेरी बुद्धि कुंद हुई अपनी आज़ादी को
खुद बंदकर चाँबी को पुरूषों को सौंप दी
जब ज़रूरत होगी तो मांग लूँगी
पर उन्हें छुपा दी या दरिया में बहा दी!
ग़र किया विरोध इसका सिर क़लम होगा
मेरा कई मुल्लाहों का लगेगा फ़तवा!
इसलिए चुप ही रूहूँगी
मैं जब तक तुम मुझे इस बुर्का से
आज़ाद नहीं कर देते जो को
एक अंधेरी दुनिया है!
अल्लाह करे वो कयाम़त दिन
ज़ल्दी आए मुझ स्त्री का वजूद
खाक़ में मिलने से पहले!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
10/1/19

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