Thursday 10 January 2019

"क्यों दूसरी औरत"

दूसरी औरत ताज़ी औरत
पुरानी औरत कबाड़ी का समान!
क्यों मेरे जीवित रहते कपड़े
और फर्निचरों की तरह
नयी आ जाती तुम्हारे बिस्तर में
मैं उतर जाती हूँ पुरानी चादर जैसी!
जिस धरौंदे को तिनका तिनका सा जोड़ कर
अपने अरमाँ को बिसरा कर बसाती हूँ
उसे तुम धौंसले सा तोड़ देते हो
मेरे बच्चों को बेहसहार और
मुझे बेवा कर देते हो!
सारे रंग मेरे रह जाते बस लाल रंग
किसी और की मांग में सज जाता है
मेरे लिए दिन के इंतजार के साथ
रातों का बढ़ जाता!
थक जाते हो तुम झूठ में मेरे साथ मुस्का कर
आँखे फेर लेते हो तब जब पलटकर लेट जाते
बिस्तर पर उसकी तरफ!
सिसकियाँ बंद दिवारों के कमरे में
घुट घुटकर रह जाती
जब तुम आंनद में रहते हो
दूसरे कमरे दूसरी औरत दूसरे बच्चों में
और मैं मेरे बच्चों हमारा घर
सब तुम्हारे वापसी में सुना सा रह जाता!
औरत ही औरत की दुश्मन है
जब औरतों से ज्यादा मर्द है
एक औरत अपने जैसे ही
सब कुछ पास रखने वाली
दूसरी औरत का हक़ छिन लेती
ये भी ना सोचती कोई मेरी जगह भी ले सकते है
फिर मेरे स्थिति भी पहले वाली जैसी होगी
कबाड़ी के समान सी!
क्या दौलत,शौहरत और रूतबा
इतनी बड़ी चीज़ है किसी का जमीर मर जाता
दूसरे का जमीन छिनकर!
कुमारी अर्चना
पूर्णिया,बिहार
मौलिक रचना
10/1/19

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