Thursday 10 January 2019

"चुल्हा जब जलता है"

चूल्हा का धूँ धूँ कर जलना
पेट की आग का बुझना है!
चुल्हा अग्नी देवता है अन्न के साथ
इसमें पसीना भी पकता है !
चुल्हा उदास रहता है
मतलब भूख की हड़ताल है
दाना पानी की मँहगाई मार ने इसे बुझा दिया!
चूल्हा कभी जलता है कभी बुझा ही रहता है
देह की आग तो नैतिकता के
आवरण से ढकी रह जाती है
पर पापी पेट की आग तो
आत्मा को जलाती है!
चोरी,पाकेटमारी खूनी,बेईमान
और दलाल तक बना देती है
चूल्हा तब भी जलता है
केवल लड़की,कोयले और गैस से
नहीं जलता जलता है
इन्सान के इमान से
इन्सान के खून- पसीने से
इन्सान की कड़ी मेहनत से!
चूल्हा बूझ जाता है
घर में अन्न का दाना है
जलावन भी जलने को पर आदमी नहीं है
जो इसे जलाने में खुद जल भून जाता
जैसे भट्टी का इट्टा हो बिना तपे
मजबूत नहीं होता वैसे आदमी
बिना खट्टे आदमी नहीं कहलाता है!
आदमी होने की शर्त है काम का करते रहना
बेकार आदमी बेकार समान!
चूल्हा भी अपना रंग गिरगिट सा बदल रहा
पहले मिट्टी से बनता साँचे सा सजता था
अब स्टील,लोहा से बनता सजावट सा सजता है
ना धूँआ फेंकता है ना आँखों को कष्ट देता
ना वक्त खाना बनने में लेता
फिर बंद कमरे में पड़ा बूढ़ा बूढ़ी
दो रोटी को तरसता रहता मिलता है!
चूल्हा तू मिट्टी का बना ही अच्छा था
एक हंढी चढ़ती थी तुझपर
सबके पेट में दाना जाता था
पर सबके घर में कई हंढी चढ़ती
पर दाना कुछ पेट के अंदर जाता
कितना दाना बेकार कूड़े में
भूखा पत्तल को चाटता है
मानो भूखा कुकुर ही हो कोई फर्क नहीं,
कौन कुकुर है और कौन आदमी रहा है!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
10/1/19

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