Wednesday, 24 July 2019

"हम पूर्वजों का इतिहास आगे बढ़ाने आए है"

हमारे पूर्वज जो भूतपूर्व हो गए
और हम मानव वर्तमान हो गए!
कभी उनका जमाना था
आज हमारा जमाना है
शायद कल किसी और का होगा
जो हमने देखा नहीं पर समझते तो है
सदा किसी का भी जमाना नहीं रहता
एक दिन हम भी नष्ट हो जाएगें
बीते सभ्यता बीते लोगों बीती संस्कति
बीती पंरपराओं की तरह
केवल हमारे कंकालों का अवशेष बचेगें
फिर हम क्यों घमंड के मद में चूर
भूल जाते हम क्या थे
हमारे पूर्वज कौन थे
वो हमे किस उदेश्य से धरती पर लाए थे
और हम यहाँ क्या कर रहे
लक्षयवहीन दिशावहीन से
मायावी दुनिया के छलावे में भटक रहे
हम मानव भूल गए कि हम अपने पूर्वजों का
इतिहास आगे बढ़ाने आए है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना

Tuesday, 16 July 2019

"बदला चाहिए वीर शहीदों का"

शब्द क्यों मौन हुए है
मातम पसरा हर ओर है
वीरों की कुर्बानी से रक्त रंजित हुई
 धरा,रो रो कर माँ का हाल बुरा है,

धरती माँ  का कलेजा़ फट रहा

माँ का लला छीन गया
बुढ़ापे की लाठी टूट गई
मांग का सिंदूर सुना पड़ा
बहन की राखी उदास रही
बच्चों का बचपन छीना!


लड़ रहे" जिहाद"युवा
जिस कश्मीर की आजादी का
उस कश्मीर के कर दो टूकडे टकड़े
विशेष संविधान का अधिकार
और विशेष राज्य का दर्जा हटाओ
बना दो उसे समान्य राज्य!


भरा जिसके सीने में नफरत हो
चीर दो उसके सीने को
हिंदू हो या मुस्लिम हो
आंतकी जो मचाए आंतक
नामोनिशान उसका मिटा दो
फिर से करो सर्जिकल स्ट्राइक!

 
जो कर रहे हमारी सीमा को कम
मिटा दो उसके नामोनिंशा 

विश्व के नक्शे से सदा के लिए!

समझाने पर जो ना समझे
छोड़ दो परमाणुबम मोदी जी
जनता मरती है तो मरने दो
आर पार की तुम जंग लड़ो!

 
पहले भी भारत पाक के बीच
तीन महायुद्ध लड़े जा चुके  है
चौथे के लिए हम नौजवान है तैयार
सीने पे गोली खानेवालो़ का बदला चाहिए
पुलवामा में शहीद हुए चालिस सैनिको का!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना

Monday, 15 July 2019

"कुसुम हूँ मैं"

मेरी किस्मत में
अपने ही मौसम में खिलना
और खिल के फिर मुरझाना लिखा है
मेरा जीवन चक्र छोटा है
पर मैं थोड़े वक्त में बड़ा काम कर जाती हूँ
भवरों को रिझाती हूँ
कली से फूल बनती हूँ
फिर भगवान की चरणों में अर्पित होती हूँ
सजवाट के लिए
जन्मदिन से लेकर मृत्यु के
शोक में दी जाती हूँ
प्रेमिका से लेकर पत्नी के बालों में सजती हूँ!
कुसम की पत्तियाँ धीरे धीरे
सूखकर या टूटकर नष्ट हो जाती हूँ
बीज छोड़ जाती हूँ
नयी कुसुम को फिर से खिलने
और मुरजाने के लिए
मेरा वंशावली ऐसे ही चलती है
जैस मानवों का पीढ़ी दर पीढ़ी!
मैं भी कुसुम होना चाहती हूँ
अपने भगवान के चरणों में
थोड़ी सी जगह पा सकूँ
हे भगवान अगले जन्म मुझे
कुसुम ही बनाना तुम्हारों चरणों में
और प्रियतम के पास रह सकूँ
जी भर के उसे प्यार और
खुशबू साँसो में भर सकूँ
अपने होने का अहसास दे सकूँ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णीयाँ,बिहार

Friday, 5 July 2019

"जिंदा पिण्डदान"

हिन्दू देहवासन के उपरान्त
पूर्वजों की आत्मा की शांतिस्वरूप
प्रेत योनि से बचाने के लिए
देते उन्हें श्रद्धास्वरूप पिण्डदान
करते स्वर्ग प्राप्ती रास्ता प्रसस्थ!
पृतपक्ष में गया,बिहार में
जो विष्णु का नगरी और मोक्ष भूमि मना गया
भगवान विष्णु स्वंय पृतिदेवता के रूप में
रहते है विराजमान!
वैसे हरिद्वार,कुरूक्षेत्र, गंगासागर,
पुष्कर,चित्रकूट समेत कई जगहों पे
भी पिंड दान किए जाते है!
पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक है
माता-पिता को पिंडदान करे
परन्तु ये विशेष अधिकार शास्त्रों ने
पुत्री को प्रदान क्यों नहीं किए?
श्राद्ध में जौ व चावल के आटे से
गूंथ कर गोलाकार पिंड
प्रत्येक जीव की अभिरूचि अनुरूप
मीठा,तीखा प्रत्येक स्वाद का पदार्थ से युत्त
अंश तर्पण के लिए श्रेष्ठ होता है!
पिंडदान में शुभकार्य और
गर्भवती स्त्री का प्रवेश वर्जित है
परन्तु जब अपनों के जीते जी
हो जाए संवेदना शुन्य
हृदय के कोणों कोणों में
सुख जाए प्यार की बूँद बूँद
तो क्यों न दे जिंदा पिण्डदान?
जब रिश्तों पर विश्वास न हो
अपनो का अहसास न हो
मिलने की कोई आश न हो
फिर फर्क क्या पड़ता है
वो व्यक्ति जिंदा है या मृत!
फिर क्यों मृत्युउपरांत ही
दिया जाता है पिण्डदान?
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार

"माया हूँ मैं"


मैं स्त्री माया हूँ
दुनिया की माया की तरह
मुझे भी समझना कठिन
साहित्य में रहस्यवाद हूँ
विज्ञान में शोध का विषय
राजनीति में विवाद हूँ
इतिहास में पतन होती
किसी सभ्यता जैसी हूँ
जादूगर की जादू जैसी हूँ!
हाँ माया हूँ मैं काया में लिपटी हूँ
मेरे रूप के मायाजाल में पुरूष फंस जाता है
मेरी ममता में पुत्र आ जाता है
मेरे यौवन के आगोश में पति
अपनी माँ को भूल जाता है
अपनी बहन और बचपन के
साथी को छोड़ देता है
खो जाता है अपनी शुद्धबुद्धि
मेरे मोह पाश में हार जाता है
अपना सब कुछ जैसी युधष्ठिर हार गया था
दुर्योधन अपमान का घुट पिकर
महाभारत युद्ध कराकर भी
अपना सब कुछ हार गया था
हाँ मैंस्त्री रूपी वही द्रोपदी हूँ!
हाँ मैं वही पवित्र सीता हूँ
जिसको पाने के लिए राम से
रावण लंका हार गया था
अग्नीपरीक्षा देकर भी मेरा
स्त्रीत्व पराजित हो गया था!
हाँ,कबीर की वही माया गठनी हूँ
तुलसी के ठोल गंवार,पशु,नारी हूँ
जो ताड़न की अधिकारी हूँ
अर्थर्ववेद में मेरे जन्मनिंदनीय
मैत्रेयनी संहिता में मदिरा तुल्य
पुराण में शुद्र संग वेद न पढ़ने
स्वर्णकाल में गिरती पड़ती
मध्यकाल में बनती वस्तु
आधुनिक काल करती संर्धषरत
इक्कीसवीं सदी की सबला हूँ
मैं माया हूँ मैं!
कुमारी अर्चना "बिट्टू"
मौलिक रचना
पूर्णिया,बिहार

"मैं तुम्हारी वही रातरानी"

न बेला हूँ न गुलाब
न जूही हूँ न चमेली
जो सूरज की चमकीली किरणों से बचकर
रात के अंधेरे में खिले
वो है रातरानी का फूल
एक पेड़ मेरे घर-आँगन को महकाता है!
पूर्णिमा को जैसे पूरा चाँद रहता
वैसे रातरानी की पूर्ण सुगंध
आमावस्या की काली रात
उस दिन फूल नहीं खिलते
मेरी रात रानी तो चाँद सी है!
जैसे चाँद की चाँदनी रात के
अंधेरे में प्यारी लगती है
मैं भी अपनी सजना को रात में
जब दफ्तर से काम कर वो आते
मुझे मेरी रातरानी कह पुकारते
दिन -रात की खटनी का
अहसास जाता रहता!
कैसेट के पुरानी रील सी
घीसी पीटी गई जिंदगी में
मैं स्वंय का अस्तिव मिटा
गृहस्थी को बसाने में दे देती
बच्चों का पालन पोषण में
सजने सँवरने का शौक भूल बैठी
उनके शाम आने की बैचेनी न होती तो
मैं स्त्री हूँ या एक मशीन
सजना सवँरना मेरा हक़ है
शायद कब की भूल जाती!
शुक्रिया रातरानी के फूलों का
जीवन में शादी के इतने सालों बाद भी
मधुमास के ऋतु लाने
उन दिनों की भिन्नी -
भिन्नी खुशबूओं को देकर तुम
मेरे वैवाहिक जीवन को सुखमय बना रही
रातरानी तुम में ऐसे ही
रातों को ही खिला करो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना