Friday, 5 July 2019

"मैं तुम्हारी वही रातरानी"

न बेला हूँ न गुलाब
न जूही हूँ न चमेली
जो सूरज की चमकीली किरणों से बचकर
रात के अंधेरे में खिले
वो है रातरानी का फूल
एक पेड़ मेरे घर-आँगन को महकाता है!
पूर्णिमा को जैसे पूरा चाँद रहता
वैसे रातरानी की पूर्ण सुगंध
आमावस्या की काली रात
उस दिन फूल नहीं खिलते
मेरी रात रानी तो चाँद सी है!
जैसे चाँद की चाँदनी रात के
अंधेरे में प्यारी लगती है
मैं भी अपनी सजना को रात में
जब दफ्तर से काम कर वो आते
मुझे मेरी रातरानी कह पुकारते
दिन -रात की खटनी का
अहसास जाता रहता!
कैसेट के पुरानी रील सी
घीसी पीटी गई जिंदगी में
मैं स्वंय का अस्तिव मिटा
गृहस्थी को बसाने में दे देती
बच्चों का पालन पोषण में
सजने सँवरने का शौक भूल बैठी
उनके शाम आने की बैचेनी न होती तो
मैं स्त्री हूँ या एक मशीन
सजना सवँरना मेरा हक़ है
शायद कब की भूल जाती!
शुक्रिया रातरानी के फूलों का
जीवन में शादी के इतने सालों बाद भी
मधुमास के ऋतु लाने
उन दिनों की भिन्नी -
भिन्नी खुशबूओं को देकर तुम
मेरे वैवाहिक जीवन को सुखमय बना रही
रातरानी तुम में ऐसे ही
रातों को ही खिला करो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

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