"सफेद लिबाज"
अब तो हरे पीले लाल नीले रंग
बदरंग से हो गए है
मुझे तो सफेद लिबाज से
तन और मन दोनों को ढकना है!
सुहाग की निशानी तो
सुहाग की चिता पर जल जाती है
पहले में भी सती हो जाती थी
अब मेरे अरमान हो जाते है!
वृन्दावन के वन में कभी राधा
और कृष्ण रासलीला रचाते थे
आज वही गलियाँ मेरे लिए विराना बनी हुई है
सोलह श्रृंगार तो दूर
प्रेम के सारे रस निरस हो गए
एक कठोरी में सुबह से
शाम जिन्दगी बीत जाती
इसका आभास जाता रहता!
वृन्दावन नाम में ही वन है
फिर भी मेरे जलाने को लकड़ियाँ कम पड़ती
सीधे नदी में मेरी लाश फेंक दी जाती
चील कौओं को खाने के लिए
अब इनकी भी संख्या कम हो रही
लाश नदी में पड़ी पड़ी सड़ती रही
नदी का पानी भी गंदा हो जाता
पर परवाह किसको है?
नदी तो गंदी करने के लिए ही होती
लाश फेंको या कचरा या फैक्टी से
निकला हुआ अवशिष्ट हो
सरकारी नदी सफाई परियोजना
करोड़ों अरबों की चलवाएगी
फिर भी नदी पीने लायक
कभी नहीं बन पाएगी!
कब तक ऐसा मेरे साथ और
नदी के साथ होता रहेगा
मैं औरत हूँ नदी भी स्त्रीलिंग है
इसलिए दोनो के साथ समान
व्यवहार किया जा रहा है
यदि दोनों पुलिंग होते तो क्या
ये व्यवहार हमारे साथ होता?
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार
Saturday, 14 September 2019
"सफेद लिबाज"
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