तुम्हारे अन्दर से आती
भिन्नी भिन्नी सी खुशबू
कमरे में छा जाती जो
अब तक साँसों में है!
जब भी तुम आते हो
सीधे साधे से लगते हो
पर तुम्हारे तन से कभी
मिट्टी की सुगंध आती
पवित्र अगरबत्ती की
कभी शुद्धत धी की तो
कभी आरती की
मन को शीतलता और
तन को व्याकुलता देती
ये खुशबू कौन सी है!
आज तक न जान सकी
तुम दूर इतनी दूर चले गए
कभी फिर वापस न लौटने को
पर मैं उसी तन की खुशबू में
मन का चैन आज भी पाती हूँ!
कभी कभी तो लगता है
वो मेरी आत्मा में समां चुकी है
वो खुशबू नहीं मिलेगी तो
मेरी साँस रूक जाएगी
मैं भी अगरबत्ती और
फूलों की बहुत शौकीन हो गई हूँ
बदल बदल प्रयोग करती हूँ
वही खुशबू फिर से मिल जाए
और मेरे देवता के अराधना में
दर्शन पाने को व्याकुल हो जाती!
पर वो तो तुम्हारे देह की गंध थी
जिसमें आकर्षण की दिव्य शक्ति थी
क्या तुम कृष्णा थे जिसके लिए
मुझे राधा बनाकर छोड़ गए
बिन ब्याही तुम्हारी प्रेयसी
विरह की ज्वाला में तड़पने के लिए
मैं तुम्हारी उसी गंध की आगोश में
सदा के लिए सोना चाहती हूँ
आओ मुझे अपनी बाँहों में भर लो!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना
Sunday 22 September 2019
"तन की सौगंध"
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment