अब शादी के बाद
हाथों में चुड़ियाँ पहन बैठी नहीं रहती
औरत मेंहदी उतरने करती नहीं इंतजार
करती रहती बिना थके काम
सोती भी तो बुनती है सपनों को
हँसती है जब खेलती बच्चों से
सोचती जब गूथंती है आटा
धोती है जब कपड़ा तो
जोड़ती है घर का हिसाब
मांजती है सुबह शाम वो बरतन
फिर भी हौंसला न हारती है
पढ़ती है अपना पाठ्यक्रम
बेटी जब जाती है प्ले स्कूल
ऑफिस से जब आता पति
चाय पिला जताती है प्यार
करती है सास ससुर की सेवा
जब आती है अपने ससुराल
मैयका को भी नहीं भूलती है
खुद ही मिलने को चली जाती है
बदल रही अपनी दुनिया को औरत!
नहीं रही वो घर की नौकरानी
पढ़ लिख कर बन रही
जिलाधिकारी और जज
डाॅक्टर और प्रोफेसर
कभी वैज्ञानिक तो इंजीनियर
अपना आसँमा बना रही औरत
पक्षियों सा उड़ान भर रही औरत!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
Friday, 13 December 2019
"बदल रही अपनी दुनिया को औरत"
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