सुबह की छाँवों में
रजाई की राहों में
तुम्हारी गर्म बाँहों में
जो शुकून मिलता था
वो इस ठंड में कहाँ
मैं भी अकेली हूँ रात भी!
तन्हाई में दोनों एक दूसरे का
ग़म आँखों में बाँटते है
चादर पर लिपट जब सोती हूँ
तकिया को तुम समझ
बड़बड़ाती हुई कहती रहती हूँ
जैसे तुमसे कहा करती थी
तुम थक जाते पर मैं नहीं!
आज भी तुम्हारा इंतजार कर
थकती नहीं हूँ और तुम
मुझसे इंतजार करवा कर
और कितना इंतजार करूँ
अलाव जला कर भी
ये ठंड है कि जाती नहीं
जो तुम्हार मेरी साँसो की
गर्मी से मिलती थी जो
किसी चिलम को पीने से
भी नहीं आ सकती है!
एक बार फिर से वही
साँसों की गर्मी दो ना
मेरा सारा रक्त ठंड से
जम सा रहा है जानू
तुम आकर शरीर में
फिर से जान भर दो ना!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
Friday 13 December 2019
"इस ठंड में तुम आना"
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