आपाधापी की होड़ में
आगे बढ़ने की दौड़ में
मानवीय संवेदनाएं तो कहीं
शून्य हो चुकी इन्सान मौन हो चुका!
अपने को बुन रहा है
सुख को चुन रहा है
दु:ख को भुला रहा है
वस्तुओं की चाह में
नाम की प्रसिद्धि में
चौंधयाती रोशनियों में
कहीं गुम हो चुका है!
चाहतों के हाथों बिक चुका
अंदर ही अंदर कहीं टूट चुका
परिवारिक समस्याओं से
दोस्तों की दोस्ती से
अपनों के धोखे से
परायाओं दिल्लगी से
अब तो वो ऊब चुका!
कोई तिल तिल मर रहा
कोई दाने दाने को तरस रहा
फटेहाल जीवन बिता रहा
कोई पागल झपकी तो
कोई कंगाल बन चुका
कोई फर्क नहीं पड़ता
खुदको सबकुछ मिल रहा!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
Friday, 13 December 2019
जिन्दगी की दौर में"
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