हिना ही तो हूँ मैं
हिना हाथों पे
अपना रंग छोड़ती है
मैं लोगों के चेहरे पे मुस्कान!
वो भी खुद सिलबट्टे पे
घीस घीस कर पिस जाती
और मैं भी तुम्हारे इंतजार में
रोज रोज मिटकर
प्यार तो हम दोनों ही करते
बस फ़र्क इतना है
कोई घीस कर तो
रोज जी कर मरता!
कैसी विरह की आग है
जिसमें कोई एक बार भष्म हो जाता
कोई पतंगे सा तड़फ तड़फ के
क्यों मोहब्ब़त मैं इतना ग़म मिलता है
कभी प्रेमी प्रेमिका से मिलता है
तो कभी प्रेमी प्रेमिका
किसी और के हो जाते
जैसे हिना किसी और के
हाथों में सजती है
क्या मैं भी किसी और की
दुल्हन बन सजूँगी मिटने के लिए
या कई हाथों का खिलौना बन जाऊँगी!
फिर उन वफाओं का क्या
उस मोहब्ब़त का क्या
उस इब्ब़ादत का क्या
उस एतब़ार का क्या
और उस इंतज़ार का क्या
जो मैंने किया तुम्हारे लिए
जवानी से लेकर ढलती जवानी तक
दमकती से लेकर झुड़ियाँ पड़ती चमड़ी तक पतली से बेडब होती काया तक
गुजरे जमाने से लेकर आज तक
क्या यूँ बेकार हो जाएगें
जब मुझे तुम्हारी नहीं
किसी और का होना था!
कुमारीअर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१०/१२/१७
Sunday 10 December 2017
"मैं हूँ खुशरंग हिना"
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