Monday 18 December 2017

"ओ दिसम्बर मेरे"


ओ दिसम्बर मेरे
तुम केवल कलेन्डर के
साल के अंतिम महीने नहीं
मेरे जीने की साँसे हो!
जब तुम आते वो भी आता
गुलमर्ग में ब़र्फबारी बनकर
मुझ पर प्यार की बारिस करता
उसके गोल गोल गोले बनाकार में
कभी यहाँ वहाँ तो
कभी खुद पर फेंकती हूँ
उसके ठंडपन से
मेरे रोम रोम खड़े हो जाते
ठंडी हवा जब फेफडों में जाती
मैं फिर जीवित हो जाती हूँ
वर्षो के इंतजार में
देह के जमें लहूों में
संचार स्पूर्ती होती!
बाहर का तापमान गिरकर
जब शून्य से माइन्स हो जाता
मेरे दिसम्बर तुम आ कर
मुझे शरीर के ताप को बढ़ा देते हो
सूरज तो बादलों में छुप जाता
पर चाँद को अंधेरा न रोक पता
वैसे दिसम्बर तुमको आने से!
मेरे दिसम्बर कड़ाके की ठुठुरन में
तुम्हारे साँसो की गर्मी से
मुझे पसीना आ जाता
मेरे तन और मन भींग जाता
सुन्दर सुन्दर फूल खिल जाते
और मेरे अंदर का यौवन भी!
तुमसे एक बार ही मिलन होता
तुम इसी बर्फीली आँधी में
कहीं उड़ गए थे
सोचती हूँ फिर वही आँधी आए
तो वापस लौट आओ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१८/१२/१७

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