Saturday, 19 May 2018
मैं कवयित्री हूँ
Tuesday, 15 May 2018
"रह गया निर्भया का न्याय शेष"
निर्भया ने अपने नाम को सार्थक किया
बिना भय के पाँच दरिदों से अकेली आधी रात में लड़ती रही! उसकी शरीर व आत्मा दोनों लहू से लथपथ हुई फिर हिम्मत ना हारे वो मर्दानी! न्याय की चौखट पर उसकी लाश ने बार बार फरिय़ाद लगाई फिर भी रह गया निर्भया का न्याय शेष! एक बालिग अपराधी बालिग होकर भी नाबालिग का सर्टीफिर्क्ट लगा कर बच निकला निर्भय की हड्डियों को तोड़ता-फोड़ता रहा अतड़ियों को चीरता-फाड़ता रहा रॉड से जब तक निर्भय मौत के कग़ार तक जा पहुँची ! उसका हत्यारा शराफ़त का चोला पहनकर फिर से समाज की बिल में छुप निकला! उसकी लूटी इज्जत काफी नहीं थी ना उसका दिया मौत से पहले का बयान कुल पाँच अपराधी थे वो ! कानूऩ के आखों पर पट्टी बंधी है बिन सबूत के किसी को न्याय नहीं मिलता जूबनाईल की उम्र ज्यादा थी अपराधी की कम रह गई निर्भया का न्याय शेष! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार मौलिक रचना, १५/५/१८
"बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ"
पानीपत की रणभूमि से
हुआ था एक ऐतिहासिक युद्ध
अप्राजित रहा था बाबर
पानी पानी हो गया था लोदी!
बाईसवीं सदी में फिर से
बेटी को बचाने की युद्धस्तर से
"बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना"आरंभ हुई
निरन्तर गिर रहे आजादी के बाद
लिगांनुपात व सुरक्षा के लिए!
देश में केरला शीर्ष पर कब्जा जमायें खड़ा
निचले पायदान पर हरियाणा अटका रहा
इसकी जड़ में सेंध"लिंगपरीक्षण"लगा रहा
गर्भ के जांच की यह अत्याधुनिक तकनीक
शहरों व महानगरों में विष फैला रही!
पृतसत्तात्मक है हमारा समाज
जहाँ वंश पंरम्परा चला रहा है बेटा!
आज भी पुरातन जड़े रह रह कर
अपनी शाखायें फैला रहा!
गर्भ के पूर्व लिंग परीक्षण करना बंद करो
बेटा बेटी में है कोई भेद समझना बंद करो
बेटी को भी बेटा जैसा खूब पढ़ाओं- लिखाओं
वो भी पढ़ लिखकर बढ़ायेगी माँ बापू का मान
देश में ही नहीं विदेशे में कमायेगी सम्मान
बेटा बनकर परिवार की परवरिश कर रही!
सभी क्षेत्रों में आज बेटी आगे निकल रही
समुद्र से लेकर आकाश नाप रही
पर्वत से लेकर पहाड़ की चोटी चढ़ रही
डाक्टर से लेकर आ.ए.एस तक बन रही
क्रिकेट से लेकर कुस्ती तक खेल खेल रही
ना रही बेटी अब किसी पे बोझ
इसलिए बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ!
बेटी बचाओ असमानता मिटाओ
बेटी बचाओ लिगांनुपात बढ़ाओ
बेटी बचाओ बेटा बचाओ
बेटी बचाओ समाज बचाओ
बेटी बचाओ सृष्टी बचाओ!
बेटी पढ़ेंगी तो परिवार पढ़ेगा
बेटी पढ़ेंगी तो दहेज मिटेगा
बेटी पढ़ेंगी जातिपांता का भेद मिटेगा
बेटी पढ़गी बेटा बेटी का भेद मिटेगा
बेटी पढ़ेंगी घर के कष्टों का बोझ धटेगा
बेटी पढ़ेगी देश की अर्थव्यवस्था बढ़ायेगी
इसलिए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ|
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
6/9/18
"तुम मेरे दिल में हो"
"अक्स"
क्या मेरा अक्स मेरे अंदर छुपा है जो दिखता नहीं दो खुली नंगी आँखों से! इन्हें देखने के लिए मन की आँखें चाहिए पढ़ने के लिए अपना ही अंर्तमन! फिर भी आज तक क्यों ना जान पाई खुद को ना ही पहचान पाई सुना है सब कुछ सच कहता है! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार मौलिक रचना १५/५/१८
Monday, 14 May 2018
इच्छाशेष है
बह चले मेरे भाव
भावनाओं के प्रवाह में
अब ना रूकेगें
जाये तू जिस ओर
जाउँगी मैं उसी छोर!
तेरे पदचिह्नों को ढूंढ़ती
अपना रस्ता बनाऊँगी
सब पिछल्लगू कहेंगे
तो कहने दो ना
हँसते तो हँसने दो!
तू चलेगा तो मैं भी चलूँगी
तू दौड़गा तो मैं भी भागूँगी
तू रूकोंगे जहाँ मेरे मंजिल वहाँ पर
परछाई को कब कोई पकड़ पाया है!
मेरे अंर्तमन में दबी
तुझे पाने की इच्छा शेष है
जिसे पाने के लिए मैं और
मेरा मन व्याकूल है!
क्यों दिल से तुझे चाहने की
आज भी इच्छाशेष है
भले तू तन से किसी
और का बन चुका है
फिर भी तुझे अपना बनना की
इच्छाशेष है!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
"कब होगी राधाकी होली"
सारा जग में हारूँ जो खेले तू
मेरे मेरे संग कान्हा होली
लगाऊँ फाग में लाल गुलाल
तू रंग दे मोहे सच्ची प्रीत में!
राधा तेरी थी तेरी ही रहेगी
चाहे कितनी ही रूकमनियों ब्याह लें
कुमकुम नहीं लगाया तूने फिर भी
मेरी माँग भरी है राधा का मोहन के नाम से! वृदावन का वन ब्रज का पनघट
कान्हा की गोपियाँ माखन की मटकी
भरे आँखों में आशाई लिए
राधा वही खड़ी है जहाँ पर छोड़ा था
श्याम से मिलन के लिए!
क्योंकि राधा की आत्मा
आज भी वृदावन की धरा पर भटक रही
कब कृष्ण की बाँसुरी बजेगी!
इस होली गोपाल ब्रज आकर
राधा के संग खेलो होली
मुक्त कर दो उसकी आत्मा को
परमात्मा तुम से मिलन को!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१५/५/१८
श्रद्धेय है हम
श्रद्धेय है हम ओओ हमे पूजो
चंदन,टीका लगाओ अक्षत भी छिड़को
मंदिर में बिठाओ देवी रूप में
हम कुवारी कन्याएं है तो कहीं
जिंदा देवी है महाकाली का स्वरूपा!
धर्म के नाम पर हमे देवी के येल्लमा मंदिर में
माध पूर्णिमाँ जिसे"रण्डी पूर्णिमा" भी कहा जाता
बलि का बकरा बनाया जाता
आदिवासी नवयुवतीयों का मेला होता
जहाँ भक्तों का उनके देह से खेला होता
शादी की सारी रस्मों रिवाजों के साथ
हमारा नग्न जूलूस निकाला जाता
फिर दीक्षित करके मंदिर और पुजारियों की
जीवंत संम्पत्ति बना दिया जाता!
हमारा विवाह मंदिर से होता
हम देव की पत्नी या दासी कहलाती
पहले हमारा कार्य संगीत,नृत्य और
धर्म की रक्षा करना था बाद
पुजारियों और मेहमानों को
यौन तृप्ती करवाना था!
ऐसा मान्यता है की देवदासी के
प्रणय कीड़ा करने से गाँव में
सुख शांति बनी रहेगी
प्रजा पर विपदा नहीं आएगी
चाहे हमारा बच्पन खो जाए
यौवन क्यों ना तबाह हो जाए!
देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग
कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" से
कालिदास के मेघदूतम् तक मिलता
आधुनिक साहित्यिक विधाओं में
हमारा दर्द परोसा जाता फिर भी
हम देवदासी की देवदासी रह जाती!
उठती रहती सदा ही अवाजें पर
कोई सुनता ही नहीं है अखबारों का
बांसी खबरों जैसी धर्म के नाम पर
कुप्रथा को श्रेय दे रहे जिससे
अपना वोट बैंक ना कम हो!
मंदिरो को मिलने वाला सामंती सरंक्षण
धीरे धीरे समाप्त होने पर बाजारवादी
पूँजीवादी व्यवस्था ने हमे जिस्म की
मंडी का माल बना दिया या
फिर भिक्षावृत्ति करने को विवश!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
9/1/19
ना ना ऐसा ना करो
ना ना करो मेरा बलात्कार
मैं तो अबोध सी बच्ची हूँ!
ना ना मत मारो अभी मुझे
जीना बहुत दिनों है!
ना ना रोको कहीं भी
मुझे स्कूल पढ़ने जाना है!
ना ना खेलों मेरे अंगों से
मुझे खिलौनों से खेलना है!
ना ना समझो मुझे देह
मेरे वक्ष अभी उभरे नहीं है!
ना ना देखो ऐसी नजरों से
मेरे नैन अभी नशीले नहीं है!
ना ना पिओ मेरे नाजुक लबों को
अभी तो मैं मासूम कली हूँ!
ना ना तोड़ो ऐसे वैसे तुम
मैं अभी भी सजीव हूँ!
ना ना मुझे बाँटो एक दूसरों में
मैं तो बस" एक"हूँ!
ना ना छिनों मेरा प्यारा जीवन
मुझे बड़ी होकर कुछ बनना है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१५/५/१८
मेरा प्यार
मेरा प्यार तेरे लिए..
कितना है मैं कह नहीं सकती
बस इतना जानती हूँ
दो शरीर का रूप लेकर
भी एकाकार है!
तुम मुझमें और मैं तुममें
ईश्वर और भक्त बनके!
मेरा अस्तित्व तुम बिन शुन्य है
और तुम्हारा भी!
मेरा प्यार तेरे लिए है
और सदा ही रहेगा..
बादल सा उच्चश्रृख है प्यार
सागर सा गहरा है प्यार
समुद्र सा लहराता है प्यार
झरने सा शीतला है प्यार
पवन सा उड़ता है प्यार
पर्वत सा द्धढ़ है प्यार
हिमालय सा ऊँचा है प्यार
जमीन सा समतल है प्यार
नदी सा निर्मल है प्यार
कलियों सा खिलता है प्यार
फूलों सा महकता है प्यार
पत्तों सा हरा है प्यार
पतझड़ में ना झड़ता है प्यार
हर मौसम में सुहाना है प्यार
इंद्रधनुष सा संतरंगा है प्यार!
कुुमारी अर्चना'बिट्टू'
पूर्णियाँ,बिहार
"कैसे कहे तुम्हें बुद्धि की देवी"
ओ वीणा वादनी शारदे माँ
सबको देती तुम सदबुद्धि फिर
क्यों पैदा होते बुद्धिहीन, मनोरोगी,
कम बुद्धि के तो किन्हीं की खो जाती स्मृति!
क्यों होती संवेदनाएं शून्य होते
उनके विचार का टूटन क्यों जाते
वो सब भूल वैध से ग़र उपचार न हो
मिले न समय पर दवा दारू
वो भोजन तक करना जाते भूल
भागते है गाड़ियों के पीछे
सोते है सड़कों के किनारे
फटे पुराने कम लत्तों में
कुड़े कचरों से खाना बिनके खाते
लाख करोड़ों मेरे बैंक के खाते में
काली दुर्गा और शिव को गरियाते
मन ही बतियाते और मुस्काते
भीड़ में भी खुद को अलग थलग पाते
वो खुद कौन है क्या नाम है कहाँ से आए
कहाँ को जाएगें पीछे
क्या बीता आगे क्या होगा
सब बातों से रहते बेखब़र है!
पूर्वजन्मों के पाप का फल है
कहते है कुछ बूढ़ पुरनिया लोग पर
किंन परिस्थितिवश ये बनते
बुद्धिहीन और संवेदनहीन
कोई न देखता न ही समझता!
बाहरवालों की तो छोड़ों परिवार वाले
अलगथलग छोड़ देते दर दर भटक
भिख माँगकर बचा खुचा
जीवन गुज़र बसर करने भगवान ने
मुँह दिया है निवाला वही देगा!
पागल कह आते जाते हँसते लोग
कुछ संवेदना विचारों से देते तो
कुछ अपने ग्रहों कौआ को खुश करने
बाँटते कम्बल और खाध सम्रागी
कुछ सरकार को कोसते है!
आधुनिक चिकित्सा अभी भी है
अपूर्ण भारत में दस में एक और
विश्व में दस में सात व्यक्ति
मनोरोग से पीड़ित है ऐसे रोगियों का
पूर्णत:उपचार न हो पाता
मँहगी दवाएं से न ही सबका इलाज हो पाता
देवी शारदे के भरोसे अपना सारा जीवन
काट देते फिर भी माँ को दया न आती
व्यक्ति के पराब्ध को न बदल पाती!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
3/12/18
एक चिठ्ठी
"एक चिठ्ठी तुम्हारे नाम"
मेरे प्रियत्म प्यारे!
प्रित भाव से प्रेमपत्र लिखा रही
आँसूओं को सियाही बनाके
अंदर का दर्द बाहर
शब्दों में उडेल रही!
केवल स्याही का काला
या नीला रंग नहीं
मेरे दर्द लहू बन उभरेगा
जब तुम मुझे दिल से
अपने आसपास हूँ
मेहसूस करोगे मेरे दर्द को
अपना दर्द सा समझोंगे
वरन् ये अनर्गल शब्द नज़र आएगे
और मैं बीती रात की बीती कहानी!
डाकिया से चिठ्ठी मिलते ही
अपना जबाब मुँह जवानी लिखना
कैसे हो तुम मुझसे जुदा होकर
हाल ए दिल बयाँ करना
खुशी में होगें तो मैं ना जलूँगी
गम़ में होगें तो ये ना कहना कि
मैं आसूँओं को न बहाऊँ!
अपने आसपास की बदलती हवा
बदलता मौसम
बदलते हालात
बदलते लोग का
हाल ए जज्बात ब्याँ करना!
क्या तुम भी मेरी तरह
तनहाई को पाते हो
अपने अंदर और बाहर
अकेला कमरा
चुपचाप खिड़की
दिवारों की उदासी
गमसुम सन्नाटे की आती
आहटों को पाते हो
राते छोटी और दिन बड़ा सा लगता है
मिलन की चाह में मन के साथ
आत्मा भी भटकती है और
शरीर बेज़ान सा रहता
बिस्तर पर सिलवटें और
तकीये पर अश्रु की बूँदे
बिखरी रहती है
जब तुम सुबह उठते हो
मेरे ख्वाब से जाग कर!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
"योग गुरू बाबा रामदेब"
अब योग केवल ना रहा योगी का खेल
घर धर जब पहुँचे बाब रामदेव जी
संचार सेवा के माध्यम से "आस्था चैनल" बन के
योग से आस्था का अलख जगाये
भारत के योग को विश्व में पहुँचाया
जय हो योग जय हो बाबा रामदेव!
फिर से दिलों में देशभक्ति का जोश भर
वेद,धर्म की ओर फिर से लौटो
स्वामी विवेकानंदजी का पाठ पढ़ाया
करके आयुर्वेद का प्रयोग तुम ने
शरीर को बनाओ सदा निरोग्य!
स्वदेशी से निर्मित वस्तुओं का इतेमाल कर
देश को फिर से विदेशी कम्पनियों की
गुलामी से बचाया!
योग को जीवन शैली में अपनाकर
बहुत सी बिमारी को दूर भगाएं
कम खर्च में ज्यादा लाभ पाएगें
घर का धन में ही हम बचाएगें!
बाबा रामदेव का योग में है बड़ा ही योगदान
उन्होंने कई नि:शुल्क शिविर करवायें
मानव होने का धर्म निभाया!
योग का गुरू बना भारत देश
इक्कीस जून बना अंर्तराष्ट्रीय योग दिवस
जय हो योग जय हो बाबा रामदेव!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
27/12/18
"मैं इतिहास बनाना चाहती हूँ"
मैं इतिहास बनना चाहती हूँ
मेरी कलम रूके नहीं
बस चलती रहे...
जिन्दगी की सासों के
अन्तिम क्षणों तक!
तभी इतिहास पन्नों पर
मैं कवयित्री कहलाउँगी
सब कुछ भूल सब को भूल
"मैं"को साधना होगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
15/5/18
"अपनी धड़कनों को सुनो"
"नारी तुम क्या नहीं हो"
नारी तुम जल सी शीतल हो
नारी तुम ज्वालामुखी सी गरम हो
नारी तुम सागर सी हो
नारी तुम थल सी नरम हो
नारी तुम चट्टान सी कठोर हो
नारी तुम नभ सी उँची उड़ती हो
नारी तुम समीर सी चलती हो
नारी तुम सरिता बन बहती हो
नारी तुम धारा में रहती हो
नारी तुम पर्वत सी स्थिर हो
नारी तुम पहाड़ सी श्रृंखला हो
नारी तुम पेड़ सी छाया देती हो
नारी तू पौधो सी हरियाली लाती
नारी तुम कली से बंद रहती
नारी तुम फूल बन खिलती
नारी तुम बीज से फसल बनती
नारी तुम इतिहास के पन्नों में
नारी तुम भूगोल सी गोल हो
नारी तुम नित ज्ञान देती हो
नारी तुम विज्ञान सी खोज हो
नारी तुम ब्राहाण्ड सी विशाल हो
नारी तुम ही अर्थ में हो
नारी तम देवी सी हो
नारी तुम पृथ्वी सी हो
नारी तुम नर नरायण में हो
नारी तुम आदि शक्ति हो
नारी तुम लक्ष्मी हो
नारी तुम कल्याणी हो
नारी तुम पुत्री हो
नारी तुम प्रेयसी हो
नारी तुम ममतामयी हो
नारी तुम गृस्वामिनी हो!
नारी तुम संस्कारों हो
नारी तुम सत्कर्म हो
नारी तुम धर्म हो
नारी तुम धर्मग्रंथ में
नारी तुम भाग्य विधाता हो
नारी तुम मायामयी हो
नारी तुम दयामयी हो
नारी तुम करूणीय हो
नारी तुम ही मोक्ष हो!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१४/५/१८
Sunday, 13 May 2018
"मैं तेरी मीरा हूँ"
मैं तेरी मीरा,ओ मेरे धनश्याम जग तो पहचाने मुझको,अब तू भी मोहे जान,मैं अनजान नहीं,तेरी परिचित हूँ,मैं ना तेरे बच्चपन का सखा सुदामाहूँ,ना प्रेयसी राधा व गोपी हूँ,मैं तो जन्मों जन्मों से,तेरी भक्तिन मीरा हूँ,बस अपनी बंद अखियँन को खोल और मुझे अपने दिलद्वार में जाने का प्रवेश दें! कुमारीअर्चना मौलिक रचना पूर्णियाँ,बिहार १३/५/१८
"मिलन की कवितायें लिखती हूँ"
Saturday, 12 May 2018
"आओ पेड़ पौधे लगायें"
आओ पेड़ पौधे को लगाये
पर्यावरण को हरा भरा बनायें
आओ मरते हुए जीव को जिंदा कर दें
मानव के अंदर दम तोड़ती जा रही
मानवता को जगा दें
प्राचीन काल से ही पेड़ पौधे पूजनीय रहे
तभी तो प्रकृति पूजा का उल्लेख
हमारे वेद और ऋचाओं में है
और देेवताओं में पर्यावरण देवता का!
आओ प्रत्येक जीवनवर्ष पर ये संकल्प लें
कि हम सभी एक- एक पेड़ लगायेंगें
आओ पुत्र व पुत्री की भाँति उनको पाले पोसे
बूढ़ापे में वो हमारा सेवा सत्कार करेगें
हमें फल और छाया देकर जीवन में
ऑक्सीजन और देहअवसान पर लकड़ी देकर
शरीर रूपी काया से मुक्ति के लिए !
धन्य है ये पेड़ पौधे भगवान का दूसरा रूप है
तभी दूर रहकर भी हमें सदा
खुशहाली का आर्शिवाद देते है!
कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
"भूखे पेटमैं नहीं गाउँगा"
भूखे पेट मैं नहीं गाउँगा
जय हो भारत भाग्य विधाता!
नंगा मैं नहीं गाउँगा
जनगण मंगल दायक जय हो!
बिन छप्पर के मैं नहीं गाउँगा
वंदेमातरम् वंदेमातरम् वंदेमातरम्!
अराजकवादी व भष्ट्राचारी देश
मैं नहीं कहूँगा कभी गाँधी स्वराज आएगा
कभी राम का रामराज्य आएगा
चहूँ ओर सुख शांति व खुशहाली होगी
सम्मान नहीं मैं तिरंगा का कर पाउँगा
जब मेरा बेगुनाह बेटा मुठभेड़ में
गोलियों से मरा गया हो
मेरी जवान बेटी आज भी गुमशुदा हो
मेरे बूढ़े बाप का पेंशन ना मिला हो
मेरी माँ अपने बेटे और बेटी के
इंतजार में रोती बिल्खती रहती हो
तिरंगा वो मैं नहीं फहराउँगा!
जानता हूँ हम आजाद है
अधिनायकवाद ब्रिटिश महारानी विटोरिया का
नहीं है,भारत माता का है
जब माता के सारे लालों का
पालन पोषण समान नहीं तो
कोई बहुत अमीर होता तो
किसी को अन्न के लाले पड़े हो
असमानता दिखती है हर क्षेत्र में
बेरोजगार दिखता है आज का युवा
फिर कैसे मैं और मेरे जैसे कई
जय हो भारत भाग्य विधाता कहें!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
23/12/18
शिकायत है!
बादलों को शिकायतहै,हम आपकी याद में कैसे उड़तेहै,फूलों को शिकायत है,हम आपसे क्यों महकतेहैं,हवा को शिकायत है,हम आपको नामसे कैसे साँसे लेते है,ध्वनी को शिकायत है,हम आपका संदेश पहले कैसे सुनते है,तारों को शिकायत है,हम आपको सितारा क्यों कहते हैं,रात को शिकायतहै,हम बिस्तार पर क्यों जागते हैं,दिन की शिकायत है,हम आपके ख्याल में क्यों रहते हैं,चाँदनी को शिकायत है,हम आपको चाँद क्यों कहते हैं सूरज की शिकायत है,हम आपसे कैसे रोशनी हैं,अपनों की शिकायत है,हम गैरों पे क्यों मेहरबाँ हैं,परिचितों की शिकायत है,हम अपरिचित के क्यों करीब हैं,शीशे को शिकायत है,हम आईनें में आपको कैसे देखते हैं,पत्थरों को शिकायत है,हम आपको क्यों पूजते हैं,पहाड़ों को शिकायत है,हम आज भी आपके लिए कैसे ठहरे हैं,सागर की शिकायत है,हम आपके विश्वास में कैसे तैरते है,नदी को शिकायत है,हम आपके सहारे कैसे बहते है,मुझे खुद से शिकायतहै,हम खुद से ज्यादा आपको क्यों चाहतेंहैं! कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार मौलिक रचना १७/५/१८