Monday 14 May 2018

श्रद्धेय है हम

श्रद्धेय है हम ओओ हमे पूजो
चंदन,टीका लगाओ अक्षत भी छिड़को
मंदिर में बिठाओ देवी रूप में
हम कुवारी कन्याएं है तो कहीं
जिंदा देवी है महाकाली का स्वरूपा!
धर्म के नाम पर हमे देवी के येल्लमा मंदिर में
माध पूर्णिमाँ जिसे"रण्डी पूर्णिमा" भी कहा जाता
बलि का बकरा बनाया जाता
आदिवासी नवयुवतीयों का मेला होता
जहाँ भक्तों का उनके देह से खेला होता
शादी की सारी रस्मों रिवाजों के साथ
हमारा नग्न जूलूस निकाला जाता
फिर दीक्षित करके मंदिर और पुजारियों की
जीवंत संम्पत्ति बना दिया जाता!
हमारा विवाह मंदिर से होता
हम देव की पत्नी या दासी कहलाती
पहले हमारा कार्य संगीत,नृत्य और
धर्म की रक्षा करना था बाद
पुजारियों और मेहमानों को
यौन तृप्ती करवाना था!
ऐसा मान्यता है की देवदासी के
प्रणय कीड़ा करने से गाँव में
सुख शांति बनी रहेगी
प्रजा पर विपदा नहीं आएगी
चाहे हमारा बच्पन खो जाए
यौवन क्यों ना तबाह हो जाए!
देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग
कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" से
कालिदास के मेघदूतम् तक मिलता
आधुनिक साहित्यिक विधाओं में
हमारा दर्द परोसा जाता फिर भी
हम देवदासी की देवदासी रह जाती!
उठती रहती सदा ही अवाजें पर
कोई सुनता ही नहीं है अखबारों का
बांसी खबरों जैसी धर्म के नाम पर
कुप्रथा को श्रेय दे रहे जिससे
अपना वोट बैंक ना कम हो!
मंदिरो को मिलने वाला सामंती सरंक्षण
धीरे धीरे समाप्त होने पर बाजारवादी
पूँजीवादी व्यवस्था ने हमे जिस्म की
मंडी का माल बना दिया या
फिर भिक्षावृत्ति करने को विवश!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
9/1/19

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