Saturday 12 May 2018

"आधुनिक मशीनीजीवनशैली"

दिन पे दिन मैं आलसी हो रहा हूँ
आसक्ती के धोड़े पर चढ़ गया हूँ!
नींद में भी चला रहा हूँ
जागते हुए भी सो रहा हूँ
क्या मैं उल्लू हो रहा हूँ!
सुबह के सूरज को न देख पा रहा हूँ
न रात चाँदनी को बिजली की
तेज रोशनी में ढूँढ़ पा रहा हूँ!
दिन पर दिन मैं आलसी हो रहा हूँ
काम को बोझ समझ रहा हूँ
आज के काम को कल पर टाल रहा हूँ
कल ना आये ये सोच रहा हूँ!
मैं ऊबा ऊबा सा हो रहा हूँ
बुझा बुझा सा जी रहा हूँ
मैं थका थका सा हो रहा हूँ
खींचा खींचा सा हो रहा हूँ
एक ही साँचे में ढलकर रोज रोज की
आंतरिक व बाहरी भाग दौड़ में
"मैं" प्लेटफोर्म की तरह पीछे छूट गया हूँ
मेरे वक्त की गाड़ी आगे निकल चुकी है
मेरे साथ चले सभी यात्री
अपनी मंजिल को पहुँच चुकी है
मैं बीच रस्ते में ही अटक चुका हूँ
निराशा के गर्त में धंस चुका हूँ
आशा की कोई किरण
कहीं न दिखती मुझको
आलस्य की पट्टी जबतक
न खुलती आँखों से!
क्या ये दोष मेरा है या
आज की आधुनिकता की दिखावटी शैली का
जिसने व्यक्ति की जीवन शैली को
परिर्वतित कर मशीन बना दिया है
मैं कृत्रिम और असमाजिक हो गया हूँ!
क्योंकि यह मशीन संस्कृति दौर है
मुझे भी भावनाओं में नहीं
भावशून्य रोबोट बनना पड़ेगा
तभी में प्रतिस्पर्धी बाजार में चल पाऊँगा!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
28/12/18

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