Friday 11 May 2018

"हे बुद्ध कहाँ हो तुम"

अमरपाली को शरण दी
फिर मैं कहाँ जाऊँ
वो गणिका थी
मैं एक साधारण सी स्त्री
उसके पास चयन की स्वत्रंता थी
मेरे पास सारे विकल्प बंद है!
वशीभूत थी संसारिक माया में
बोद्ध धर्म में ज्ञान दे उधार किया
हे प्रभु मेरा भी कल्याण करो
मुझे भी अपने शरण में लो!

मैं दलित ऊपर स्त्री बनी
भोग की वस्तु में ढली !
हिंदू कहता मेरी बनो
इसी धर्म में जन्म लिया
मरते दमतक मेरी संपत्ति हो!

मुस्लिम कहता मेरी बनो
अल्लाह हमारा एक है
जाति में हम"इस्लाम" है
मिल बाँट सब खाएगे!

क्रश्चियन कहता मेरी बनो
सब धर्मो से अच्छा हूँ सच्चा हूँ
तेरा भूखा पेट मैं भरूँगा
तेरा नंगा तन मैं ढकूँगी
तेरे सिर में छत में दूँगा
तेरे बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दूँगा
तेरे उपचार भी करवाऊँगा
तुम्हारे प्राणों की सुरक्षा में
बिट्रिश समाज्ञी से करवाऊँगा
बस मेरा धर्म अपना लो!

हे बुद्ध तुमने कहा था
संसार दु:खों से भरा पड़ा है
केवल मेरा ही धर्म तुम्हें मोक्ष देगा
मुक्ति के लिए तुम सब
बौद्ध धर्म की शरण में आओ!

फिर क्यों तुम्हारा धर्म भी
मुझ स्त्री को मुक्ति दे नहीं पा रहा
मेरी ही देह बाधक बनकर
तेरे धर्म में भी आ रहा
कोई भी धर्म मुझे शरण देकर भी
मेरा सम्मान की रक्षा नहीं कर पा रहा!

क्योंकि स्त्री की कोई जाति
कोई धर्म नहीं होता है
कोई रक्त संबंध नहीं होता
वो तो पुरूष लिए वस्तु तुल्य
उसकी" निर्वाण" के बाद मुक्ति भी
संभव नहीं क्योंकि उसकी देह
शव बनकर भी भोग्य है!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
१२/५/१८

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