Monday 14 May 2018

"कैसे कहे तुम्हें बुद्धि की देवी"

ओ वीणा वादनी शारदे माँ
सबको देती तुम सदबुद्धि फिर
क्यों पैदा होते बुद्धिहीन, मनोरोगी,
कम बुद्धि के तो किन्हीं की खो जाती स्मृति!
क्यों होती संवेदनाएं शून्य होते
उनके विचार का टूटन क्यों जाते
वो सब भूल वैध से ग़र उपचार न हो
मिले न समय पर दवा दारू
वो भोजन तक करना जाते भूल
भागते है गाड़ियों के पीछे
सोते है सड़कों के किनारे
फटे पुराने कम लत्तों में
कुड़े कचरों से खाना बिनके खाते
लाख करोड़ों मेरे बैंक के खाते में
काली दुर्गा और शिव को गरियाते
मन ही बतियाते और मुस्काते
भीड़ में भी खुद को अलग थलग पाते
वो खुद कौन है क्या नाम है कहाँ से आए
कहाँ को जाएगें पीछे
क्या बीता आगे क्या होगा
सब बातों से रहते बेखब़र है!
पूर्वजन्मों के पाप का फल है
कहते है कुछ बूढ़ पुरनिया लोग पर
किंन परिस्थितिवश ये बनते
बुद्धिहीन और संवेदनहीन
कोई न देखता न ही समझता!
बाहरवालों की तो छोड़ों परिवार वाले
अलगथलग छोड़ देते दर दर भटक
भिख माँगकर बचा खुचा
जीवन गुज़र बसर करने भगवान ने
मुँह दिया है निवाला वही देगा!
पागल कह आते जाते हँसते लोग
कुछ संवेदना विचारों से देते तो
कुछ अपने ग्रहों कौआ को खुश करने
बाँटते कम्बल और खाध सम्रागी
कुछ सरकार को कोसते है!
आधुनिक चिकित्सा अभी भी है
अपूर्ण भारत में दस में एक और
विश्व में दस में सात व्यक्ति
मनोरोग से पीड़ित है ऐसे रोगियों का
पूर्णत:उपचार न हो पाता
मँहगी दवाएं से न ही सबका इलाज हो पाता
देवी शारदे के भरोसे अपना सारा जीवन
काट देते फिर भी माँ को दया न आती
व्यक्ति के पराब्ध को न बदल पाती!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
3/12/18

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