वो बचपन का झूला
सखी सखा संग खूब खेला
पढ़ाई लिखाई सब भूल!
कभी आम की डाली तो
कभी अमरूद के पेड़ पर
लटके थे लंबे होने के लिए
तो कभी झूलते मस्ती के लिए!
मंडली के संग कर रहे थे
झूले संग हँसी ठिठोली
उसके बार बार मना करने पर
झुलाये जा रहे थे झूला को
वो गिरी सुखी जमीन पर
टूटी बाँजू की हड्डी पसली
डर से चेहरे का रंग हो गया पीला!
घर में चूहे की तरह दूबके
दाँट पड़ी तो फूट फूट रोये
बाद पापा के समझाने पर
दोस्त से मिलने को गए
माफ़ी मांगी अपनी भूल की
अब न झूलेंगे कभी झूला
अगले सावन में फिर लगाया
उसी आम के पेड़ पर झूला
जिस पर सखी की टूटी थी हड्डी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
Friday 10 May 2019
"वो बचपन का झूला"
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