Monday 6 May 2019

"विराम थी तुम्हारा"

क्यों तुम आते नहीं
वापस रात लौट आती नहीं
बहुत प्यार के वो दिन
रिमझिम बारिश की फुहारों के!
गए पथिक लौट आए
उड़े परिदा आ गए
गईया चर आ गई
हवा चली पास आ गई
बिता मौसम फिर आ गया
सावन सुहाना आ गया
पेड़ों पे झड़े पत्ते पुन: आ गए
बादल में काली घटा छा गई
खेतों में बाली पक गई
चारों ओर हरियाली छा गई
कली फूल बन खिल गई
फिर तुम क्यों रास्ता भूल गए!
इतनी भी क्या व्यस्ता है
सारा काम तो हो जाते है
एक मिलने का काम छूट जाता
तुम्हारी नज़र में ये जरूरी नहीं
हो भी भला कैसे?
मैं पहले से नवेली नहीं रही
गुलाब की कली न रही
कसा हुआ वो बदन न रहा
एक लोथड़ा बन चुकी हूँ
ढल चुकी है यौवान मेरा!
तुम्हारे मुझसे पाने की
अब कोई इच्छा न रही
पर मेरी तुम संग रहने की
जिन्दगी को जीने की
असीम इच्छा शेष है
मैं तुमसे प्यार किया है
तुमने मेरे इस देह से!
देह तो देह है
मिट्टी का बना पुपला
जो एक न एक दिन टूट जाता है
या पुराना हो जाता है
मैं भी पुरानी हो गई हूँ
तुम आज भी नये हो
पुरूष कभी ढ़लता नहीं
हमेशा जवान रहता है
और जवाँ देह पाना चाहता!
मैं तुम्हारा पूर्णविराम नहीं
केवल विराम थी!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

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