Monday 6 May 2019

"लधु मानव"

दुबक गया
सिकुड़ गया
टूटकर चिपक गया
आज का मानव
बंद कमरे में सिमट गया!
"हम"नहीं" मैं"बन गया
साथ साथ नहीं "ऐकला चलो रे"
बाहरी दुनिया नहीं अपनी दुनियाँ
घर का आँगन नहीं
अब चार दिवारी बन गई
बड़ा कुनबा नहीं
छोटा परिवार बन गया!
मैं खुश हूँ या
गमगीन मालूम नहीं
बस एक लधु मानव हूँ
जिंदा हूँ पर मुझमें जान नहीं!
वृक्ष की भाँति अपनी
शाखाओं से कट चुका हूँ
मैं जड़ बन चुका हूँ
जो धीरे धीरे सुखकर
मृत हो जाती है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

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