Saturday 4 May 2019

"ख्वाबों का क्या कसूर"

वो ख़्वाब ही क्या
जो अधुरे ना रहे
अगर पूरी हो जाती तो
इन्हें ख़्वाहिशों का नाम ना मिलता!
ये तो उस सपने जैसा है
जिसे हम जागती आँखों से
दिल में संजोते है और टूटने पर
मरे हुए किसी अपने जैसे
दहाड़े मारके रोते बिलखते है!
पर हमने कभी यह सोचा है
हम इन्हें क्यों देखते है
क्योंकि जो हम पा नहीं सकते
उनको ख़्वाबो के सहारे हासिल करते है!
इसलिए कसूर ख़्वाबों का नहीं
उन आँखों का है जो इन्हें देखते है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना

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