जाने ज़िन्दगी क्यों पल पल बदल रही
संतरंगी रेनबो जैसी
पल में आँखो के सामने आती
पल में ओझल हो जाती
आँख मिचौली का खेल जैसी!
कभी लाल तो कभी हरी हो जाती
इससे पहले कि मैं कुछ सोचती
वो मेरे बारे में फैसला कर लेती!
मैं जो करना चाहती
वो मुझसे कुछ और करवाती
जाने ज़िन्दगी क्यों पल पल बदल रही
सतरंगी रेनबो जैसी!
ज़िन्दगी के खेल निराले है
इसको सामने किसका बस चला है
अच्छे अच्छे पस्त है इसके सामने
फिर मेरी क्या हस्ती है
मैं तो कुछ भी नहीं
मुझे वही करना होगा
जो वह चाहती है!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
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