दूर बहुत दूर हो तुम
मेरी नजरें तुम तक नहीं जा पाती
ये मेरे नेत्रों की सीमा है या मेरे मन की
जो तुम तलक नहीं जा पाती
काश् में पक्षी होती
अपने परों को फड़फड़ाती हुई
तुम तलक पहुँच जाती!
काश् मैं पवन होती
बहती हवा के झौंके सा उड़ाकर आ जाती!
काश् मैं नदी होती
बहती जलधारा मुझे बहाकर ले जाती!
पर ना मैं पक्षी हूँ ना ही पवन हूँ
ना ही नदी हूँ मैं एक तड़पती आत्मा हूँ
जो अपने प्रियतम के पास जाना तो चाहती हूँ
पर जा नहीं पाती है
मैं लोक लाज की मर्यादा,
सरहदों को तो तोड़ जाती
पर क्या करूँ तुम जो नहीं चाहते
कि मैं अमर्यादा हो,आऊँ तुम्हारे पास!
कुमारी अर्चना"बिट्टू"
मौलिक रचना
Saturday, 4 May 2019
"नजरों से बहुत दूर हो तुम"
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