Friday 10 May 2019

"दोहरी ज़िन्दगी"

बहती पवन शांत है
सागर की लहर शांत है
नदी की धारा शांत है
फिर मेरा मन क्यों अशांत है
वो निर्झर जलधारा के समान
निशब्द मौन रहना चाहता
अंर्तमन से अपने सवालों का जबाब चाहती
क्यों अन्दर की उलझन
मेरे वातावरण में नजर आती क्यों है
किस लिए,किसके लिए?
मैं इन अनसूलझी उलझनों का विकल्प
नहीं आज सामाधान चाहती हूँ
जो अन्दर ही अन्दर मुझे
खोखला करती जा रही
निरन्तर क्षीण होता मन की उर्जा
शक्ति ने मुझे असक्षम बना दिया
ना मेरा रहा ना किसी और का हो सका
क्योंकि मैं कभी मेरे मन को तो कभी
मेरे शरीर को ढोती हूँ
मैं इस दोहरी जिन्दगी का अंत चाहती हूँ!
कुमारी अर्चना"बिट्टू" मौलिक रचना

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