Sunday 16 December 2018

"वो बचपन की होली"

कोई तो लौटा दो
मेरे बच्पन की वो होली
रंगों में डूबी
पानी में भींगी
कीचड़ में सनी
गोबर से खेली
पिचकारी से उड़ी
गुलाल से रंगी
फागुन मौसम में सजी
गीत में डली
सपनों में बुनी
अपने से मिली
हमजोली संग झूमी
प्यार में मिली
नफ़रतो को भूली
संयुक्त परिवार बंधी
समाज संग घुली
प्रकृतिक रंग से रंगी
बड़ों के पाँवों पर लगी!

वक्त से अपना रूप बदली
अपनों से दूर पराओं के बीच
कृत्रिम रंग से रंगी
चेहरों पर लगी
दिल में सूखी रही
मिलावटों में मिली
रीति रिवाजों से हटी
परम्पराओं उड़ाती खिल्ली
बड़ों करना सम्मान भूली
उपभोगतावादी युग ने
वस्तुओं की महत्ता बढ़ायी
लोगों के दिल की छोटी!
कोई फिर से ला दो
मेरी वही बच्पन की होली!

कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मैलिक रचना
16/12/18

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