अलसाई सुबह तो सुनी होगी आपने
अलसाई दोपहरी भी सुनी सी लगती
पर अलसाई शाम भी होती है
ताज्बुब हो भी क्यों ना आपको
आपने मेहसुस जो ना किया होगा
कभी जब सुबह रजाई में मुँह छुपा लेती
और दोपहरी धूप सेकने लगती
फिर खाली खाली समय में
अलसाई शाम अकेली रह जाती
रात आँखों में कट जाती है!
तुम्हारा शाम की चाय के लिए
मेरे घर रोज आना जाना
प्लेट में चाय चुसकी भरकर
दो साँसो का साँसो से मिलना
नजरों का नजरों से लड़ना
लबों के बिना टक्कराए भी
एक दूसरे से घूलना मिलना
देह की गर्मी का कड़ाके की ठंड में
तापमान का शरीर में बने रहना
अहसाई शाम का अहसास था
जब हम दोनों को दूर रहकर भी
बाँधे रहती थी रोके रखती थी
दोनों के बहकने कदमों को!
ग़र अलसाई रात होती तो
कुछ गज़ब सा होकर रह जाता
बिस्तर का तकिया से मिलन हो जाता
भला हो उन अलसाई शामों का
जो जाड़े के ठिठूरन में भी
हम दोनों को ठहराए रखी
ओस की बूँदों सी पत्तों पर!
कुमारी अर्चना'बिट्टू'
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
19/12/18
Wednesday, 19 December 2018
"अलसाई शाम"
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