जैसे कि पुष्प !
मैं सुख सी गई हूँ
जैसे की लकड़ी !
मैं पाले सी हो गई हूँ
जैसे कि पौधा !
मैं खखड़ी सी हो गई हूँ
जैसे की फसल !
मैं उजड़ सी गई हूँ
जैसे की गाँव !
मैं बंजर सी हो गई हूँ
जैसे कि धरती !
मैं अवशेष सी ना बन जाउँ
जैसे कि जीवाश्म !
तुम्हारे आने तक
लौट आओ
मैं तुमको
एक बार देख लूँ !
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
23/12/18
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