नंगी ही हूँ मैं कम कपड़ो में
बिन कपड़ो के तो क्या हुआ
जब पुरूष हो सकते है
तो स्त्री क्यों नहीं?
वैसे तो हर कोई नंगा आता और
नंगा ही जाता है बस
नाम का कुछ बित्तों का
सफेद कफ़न जाता है
वो भी शरीर के साथ
आत्मा तो नंगी की नंगी रह जाती!
आज अतिउपभोगवादी समाज में
हर आदमी का दोहरा चरित्र है
अंदर से सब नंगे है बाहर से ढके है
भड़किले पोशाकों में!
हे पुरूष! जब तुम मुझे
अपने मन की आँखों से
प्यार भरी नज़रो से देखोंगें
मैं तुम्हें देवी नज़र आऊँगी
तो कभी माँ
तो कभी बहन
तो कभी प्रेयसी
तो कभी पत्नी नज़र आऊँगी
जब अपने बाहरी काम
पिपासु आँखों से मुझे देखोंगे
मैं नंगी नज़र आऊँगी!
कभी हिरोइन तो
कभी वैश्या तो
कभी चरित्रहीन तो
कभी अपवित्र नज़र आऊँगी
कैसे देखना चाहते मुझे
ये तुम देख लो!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
मौलिक रचना
19/12/18
Wednesday 19 December 2018
"नंगी ही हूँ मैं"
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