सिकुड़ गया हूँ
ठिठुर गया हूँ
अकड़ गया हूँ
दुबक गया हूँ।
जानवर हूँ तो क्या?
मोटो चमडी का हूँ,तो क्या?
मैं भी जीव हूँ,
मुझमें भी जान है।
ठंड मुझे भी लगती है;
गर्मी मुझे भी लगती है;
भुख मुझे भी लगती है;
प्यास मुझे भी लगती है!
गर्मी तो कट जाती
नदी नाले में घुस कर
ठंड में कहा घुसूँ?
आवारा कुत्ता समझ
कोई अपने आँगन तो छोड़ो
दरवाजा झाँकने नहीं देता।
कभी किसी रास्ते पर सोये
तो कभी स्टेशन पर सोये
व्यक्ति के चादर से चिपक जाता;
तो कभी जलते अलाव पर
देह सेंक लेता हूँ वैसे
जैसे बिन ऊनी कपड़ो का,
ठिठुरता बेबस गरीब आदमी!
मैं और बेबस गरीब आदमी,
बराबर है!
वो भी आवारा है,
मैं भी आवारा हूँ,
क्योंकि वह भी रास्ते पर रहता हैं;
और एक दिन रास्ते पर मर जाता है;
और मैं भी। कभी भूख से,
कभी बिमारी से,
कभी लू से कभी सर्दी से!
कुमारी अर्चना
मौलिक रचना
पूर्णियाँ,बिहार
16/12/18
Sunday 16 December 2018
"सर्दी"
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